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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० २ सू. २५ सतो लक्षणनिरूपणम् २९१ र्थान्तरत्वं बोध्यम् द्रव्यार्थिकनयेन तु परस्परं व्यतिरेकेणाऽनुपलब्धेरर्थान्तरत्वं न भवति, अपि तु -- तन्मयत्वमेव वर्तते इति भावः ॥ २५ ॥ तत्त्वार्थर्नियुक्ति: -- पूर्वं धर्मादिद्रव्याणां सदिति सामान्यलक्षणमुक्तम्, तत्र- किंतावत् सतोलक्षणमित्याकाङ्क्षायामाह " उप्पायवयधोव्वजत्तं स - " इति । उत्पाद व्यय धौव्ययुक्तं वस्तु सदित्युच्यते, तथाहि - उत्पत्तिस्थितिविनाशस्वभावं सद् भवति, नियमत एवोत्पत्तिस्थितिविनाशाः समुदिता एव सत्त्वं गमयति, सत एव वस्तुन उत्पत्त्यादयो भवन्ति - न तु सर्वथाऽसद्भूतस्य निरूपाख्यस्य गगनकुसुमादेरलीकस्योत्पत्त्यादयः सम्भवन्ति । गगनकुसुमादेः केनाऽप्याकारेणाऽनु पाख्यायमानत्वात्, यद्धि न कथञ्चिद्ध्रुवम् - नवा, उत्पद्यते, नचाऽपि व्येति, न तत्-सत् अपितु-असदेव यथा—शशशृङ्गबन्ध्यापुत्रगगनकुसुमकूर्मक्षीरादि तथा चेदं सूत्रं द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिकनयद्वयापेक्षया प्रतिपत्तव्यम् तौ हि द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनयौ - उत्सर्गापवादस्वभावौ नैगमसंग्रहव्यवहारनयानामपि मूलभूतौ स्तः तयोः सामान्यविशेषोभयग्राहित्वान्नैगमस्य संग्रहव्यवहारयोश्चान्तर्भावात्, द्रव्यार्थिकनयस्तावद् उत्सर्गो - विधि-पित्वमप्रतिषेधो न किञ्चिद्विशेषमाकाङ्क्षति विशेषस्तावद् इतरप्रतिषेधे नाऽऽत्मानं भवान्तरत्वेन प्रतिपादयति नाप्यभावे इतरप्रतिषेधमात्र भिन्न हैं; मगर द्रव्यार्थिक नय से अलग-अलग उपलब्ध न होने से भिन्न नहीं है बल्कि तन्मय ही है ।।२५।। तत्त्वार्थनियुक्ति – पहले धर्म आदि द्रव्यों का सामान्य लक्षण 'सत्' कहा गया है, मगर सत् किसे कहते हैं, इस आशंका का समाधान करने के लिए कहते हैं उत्पाद, व्यय और धौव्य से युक्त वस्तु सत् कहलाती है । उत्पत्ति, स्थिति और विनाश स्वभाव वाला सत् होता है । नियम से उत्पत्तिस्थिति और विनाश ये तीनों समुदित होकर ही सत्त्व के बोधक होते हैं सत् वस्तु से ही उत्पत्ति आदि होते हैं जो सर्वथा असत् है, आकाश कुसुम की तरह निःस्वरूप है, उसमें उत्पत्ति आदि नहीं होती क्योंकि आकाश कुसुम आदि किसी भी स्वरूप से कहे नहीं जा सकते । जो कथंचित ध्रुव नहीं है न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है वह सत् भी नहीं होता है, असत् होता है, जैसे शशक के शींग, बन्ध्या का पुत्र, आकाश का कुसुम और कछुवे का दूध आदि । इस प्रकार यह सूत्र द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से समझना चाहिए । द्रव्यार्थिकनय सामान्य का ग्राहक और पर्यायार्थिक नय विशेष का ग्राहक है । यह दोनों नय नैगम संग्रह और व्यवहार नयों के मूल हैं, क्योंकि नैगमनय सामान्य और विशेष, दोनों का ग्राहक होने से संग्रह और व्यवहारनय में ही अर्न्तगत हो जाता है 1 द्रव्यार्थिकनय उत्सर्ग, विधि, व्यापकता, अप्रतिषेध, सामान्य अथवा द्रव्य को ही ग्रहण करता है । वह विशेष या भेद को स्वीकार नहीं करता । विशेष, दूसरों का निषेध શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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