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________________ तत्त्वार्यसूत्रे तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे धर्मादिद्रव्यसामान्यलक्षणं-"सद्” इति प्रतिपादितं, तत्र किं तावत् सदिति जिज्ञासायां सतो लक्षणमाह- "उप्पायवयधौव्व-जुत्तंस-" इति । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं वस्तु सदित्युच्यते तत्र चेतनस्य जीवस्य, अचेतनस्य धर्मादेर्वा द्रव्यस्य स्वजातिमपरित्यजोऽन्तरङ्ग-बहिरङ्गनिमित्तवशाद्भवान्तरप्राप्तिरूपोत्पत्तिरुत्पाद उच्यते, यथा-मृत्पिण्डादेर्घटादिपर्यायो भवति एवं पूर्वभावस्य व्यपगमरूपो विनाशो "व्ययः-" इत्युच्यते, यथा-घटादेरुत्पत्ती पिण्डाकृतेर्विनाशो भवति । एवमेवाऽनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावाद ध्रुवति-स्थिरी भवतीति ध्रुवः स्थिरइत्युच्यते, ध्रुवस्य भावः-कर्म वा, ध्रौव्यं स्थैर्यम्, यथा सुवर्णपिण्डकटकवलयकुण्डलाद्यवस्थासु सुवर्णद्रव्यस्याऽन्वयो भवति मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु वा यथा-मृदाद्यन्वयः, तथाविधैरुत्पादव्ययध्रौव्यैर्युक्तं वस्तु सदिति व्यपदिश्यते । ___ युक्तशब्दस्य "युजसमाधौ-" इति दैवादिकयुज्धातुनिष्पन्नत्वात् समाहितार्थकतया उत्पादब्ययध्रौव्यं समाहितम् , उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम्-उत्पादव्ययध्रौव्यमयम् उत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावं यद् वस्तु भवति तत्- सदित्युच्यते । तथाच-उत्पादव्ययध्रौव्याणि सद्पस्य, द्रव्यस्य लक्षणानि अवसेयानि द्रव्यं पुनर्लक्ष्यं वर्तते सद्रूपम् तत्रौत्पादव्ययध्रौव्याणां पर्यायार्थिकनयेन परस्परं द्रव्याच्चा तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व सूत्र में द्रव्यसामान्य का लक्षण सत् कहा गया है; मगर 'सत्' किसे कहना चाहिए ? इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर सत् का स्वरूप कहते हैं जो वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होती है, वही सत् कहलाती है । जीव अथवा धर्म आदि अजीव द्रव्यों में अपनी मूल जाति का परित्याग न करते हुए, अन्तरंग और बहिरंग निमित्तों से नूतन पर्याय का उत्पन्न होना उत्पाद कहलाता है, जैसे मिट्टी के पिण्ड से घट की उत्पत्ती होती है । इसी प्रकार पूर्व पर्याय का विनाश हो जाना व्यय कहलाता है, जैसे घट पर्याय की उत्पत्ति होने पर पिण्ड पर्याय का न रहना व्यय है । इसी प्रकार अनादि पारिणामिक भाव से व्यय और उत्पाद न होना अर्थात् मूलभूत द्रव्य का ज्यों का त्यों स्थिर रहना ध्रौव्य, ध्रुवता, स्थिरता आदि समानार्थक शब्द है । जैसे स्वर्णपिण्ड, कटक, वलय, कुण्डल आदि स्वर्ण की एक के पश्चात् दूसरी होने वाली अनेक स्थितियों में स्वर्ण द्रव्य कायम रहता है। इस प्रकार के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त वस्तु सत् कहलाती है। 'युज समाधौ' धातु से 'युक्त' शब्द निष्पन्न हुआ है, अतएव युक्त का मतलब है-समाहित । जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से समाहित है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, उत्पाद-व्यय ध्रौव्यमय है या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभाव वाली होती है, वही सत् कहलाती है। इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सद्रूप द्रव्य के लक्षण हैं । सद्रूप द्रव्य लक्ष्य है । पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं और द्रव्य से भी શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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