SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ तत्त्वार्यसूत्रे च कालस्य मनुष्यलोके एव वृत्तित्वं कथमभ्युपेयते न तु-मनुष्यलोकात् परतस्तस्य वृत्तित्वं मनुष्यलोकात्परतोऽपि काललिङ्गोपपत्तेः । तथाहि-वर्तमानलक्षणस्य कालस्य मनुष्यलोकात्परतोऽपि वृत्तित्वमवगम्यते एवं-प्राणापान निमेषोन्मेषाऽऽयुःप्रमाणादिकालस्य परत्वापरत्वलिङ्गश्च मनुष्यलोकात्परतोपि समुपलभ्यते इति चेदत्रोच्यते-भावानां वृत्तौ सत्य मपि तस्यावृत्तेः काललिङ्गत्वं नाऽभ्युपगम्यते किन्तु-सन्तस्तावद्भावाः स्वयमेवोत्पद्यन्ते-व्ययन्ति-अवतिष्ठन्ते च, भावानामस्तित्वं च वस्त्वन्तरापेक्षं भवति ।। नहि हि-मनुष्यले कात्परवर्तिन्यः प्राणादिवृत्तयः कालापेक्षा भवन्ति तुल्यजातीयानां सर्वेषां युगपत् अजायमानत्वात् तुल्यजातीयानां कालापेक्षा अर्थतः एकस्मिन् काले भवन्ति-न विजातीयानाम् । ताश्च तुल्यजातीयानां प्राणादिवृत्तये नैकस्मिन् काले भवन्ति उपरमन्ति च तस्मात्न कालापेक्षाः प्राणादिवृत्तयो भवन्ति, नापि मनुष्यलोकात्परतः परत्वापरत्वे कालापेक्षे भवतः तथाहि परत्वापरत्वे तावत् स्थितिविशेषापेक्षे भवतः । यथा-सप्ततिवर्षात्परो वर्षशतिकः अपरश्च-सप्ततिवर्षः इति सप्ततिर्वर्षाणाम् शतं वर्षाणाम् इत्येषा स्थितिः । सा च-स्वत्वापेक्षास्ति त्वादेव भवति, भावनामस्तित्वञ्चाऽनपेक्षं भवतीत्युक्तम् । इस कारण से वर्तना के द्वारा अणुरूप मुख्य काल का अस्तित्व निश्चित होता है। इस प्रकार वत्तेना निश्चय काल का उपकार समझना चाहिए । ___इस प्रकार के काल का अस्तित्व मनुष्य लोक में ही क्यों, स्वीकार किया जाता है ? मनुष्य लोक से बाहर क्यों नहीं स्वीकार किया जाता ? मनुष्य लोक से बाहर भी तो काल का लिंग (लक्षण) घटित ह ता है । जैसे वर्तना रूप काल का होना मनुष्यलोक से बाहर भी प्रतीत होता है । प्राणापान श्वाशोच्छ्वास निमेष, उन्मेष, आयु का प्रमाण आदि काल तथा परत्व अपरत्व आदि लिंग मनुष्य लोक से बाहर भी पाये जाते हैं। इसका समाधान यह है कि वहाँ भावों की वृत्ति होने पर भी वह वृत्ति काल के कारण नहीं मानी जाती, किन्तु सत् पदार्थ स्वयं ही उत्पन्न होते हैं, स्वयं ही नष्ट होते हैं, और स्वयं ही स्थिर रहते हैं । पदार्थों का अस्तित्व किसी दूसरे पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता है। मनुष्यलोक से बाहर जो प्राणापान आदि व्यापार हैं, वे काल की अपेक्षा नहीं रखते । क्योंकि समानजातीय सब एक साथ उत्पन्न नहीं होते । समान जातीय बालों के काल की अपेक्षा रखने वाले अर्थ एक काल में होते हैं, विजातीयों के नहीं । तुल्य जातीयों के प्राण आदि व्यापार एक ही काल में न उत्पन्न होते हैं और न बन्द होते हैं। अतएव प्राण आदि वृत्तियाँ कालापेक्ष नहीं हैं और न मनुष्यलोक से बाहर जो परत्व और अपरत्व है, उसे काल की अपेक्षा होती है। परत्व और अपरत्व स्थितिविशेष की अपेक्षा से होते है । जैसे सत्तर वर्ष वाले की अपेक्षा सौ वर्ष वाला पर कहलाता है और सत्तर वर्ष वाला 'अपर' कहलाता है। यह व्यवहार पदार्थों के अस्तित्व से ही होता है और किसी का अस्तित्व किसी अन्य वस्तु को अपेक्षा नहीं रखता । यह कहा जा चुका है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy