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दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. १८
कालस्य स्वरूपनिरूपणम् २४९ अथैवं तर्हि-मनुष्यलोकेऽपि वर्तनापरिणामक्रियादयः कालनिरपेक्षा एव भविष्यन्ति अलं तत्र कालकल्पनयेति चेन्मैवम् कालो यदि वर्तनादीनां निवर्तककारणतया-परिणामकारणतया वा मनुष्यलोके कल्पेत-तदा-नः स्यादेवतदर्थ कालस्य कल्पनम् । परन्तु-नत्वेवं कालः कल्प्यते अपितु वतनादिकं प्रति-अपेक्षाकारणत्वेन स उच्यते, नहि-असौ कालः स्वातन्त्र्येण पुद्गलादिकमधिष्ठाय कुलालादिवत् तेषां वर्तनादिकं करोति ।
__ नापि-मृत्तिकादिवत् परिणामिकारणं वा भवति, अपितु-स्वयमेव सम्भवतां पुद्गलादीना मर्थानाम् अस्मिन् काले भवितव्यम-नान्यदेत्येवमपेक्षाकारणं संभवति । यथा-पुद्गलादीनां गतौ धर्मद्रव्यमपेक्षाकारणमिति मनुष्यलोके पुद्गलादिद्रव्याणां वर्तनादिकम्प्रति अपेक्षाकारणतया कालद्रव्याभ्युपगमः परमावश्यकः इति न कोऽपि दोषो मनुष्यलोके कालस्य वृत्तिकल्पने इति भावः ।
यदितु-तिर्यग्लोकवृत्तिपदार्थानां चन्द्रसूर्यादिगतिक्रिययोपकृतिर्भवति, तदा-तया सूर्यादिगतिक्रियया स्पष्ट एवोपकार स्तस्य तिर्यग्लोके, । देवलोकादौ च न चन्द्रसूर्यादेगतिक्रिया भवति, न च तया तस्योपकारो भवतीति स्पष्ट एवाऽन्यत्र तदुपकारः । अतएव-मनुष्यलोकवर्त्तिनैव कालेनाऽन्यत्राऽपि कालव्यवहारोऽवगन्तव्यः, परमनिरुद्धः समयोऽपि सूर्यादिक्रियया व्यज्यमानदिनादेः परमो लव एवाऽवसेयः ।
शंका ऐसा है तो मनुष्य लोक में भी वर्तना, परिणाम, क्रिया आदि काल के बिना ही हो जाएँगे। वहाँ काल का अस्तित्व स्वीकार करने से क्या लाभ ?
समाधान- मनुष्य लोक में काल को यदि वर्त्तना आदि का जनक कारण माना होता या उपादान कारण माना होता तो ऐसी कल्पना करने की आवश्यकता नहीं थी। मगर ऐसा तो माना नहीं है । वर्त्तना आदि में काल अपेक्षा कारण ही कहा गया है। जैसे कुम्भकार मिट्टी लेकर घट बनाता है, वैसे काल पुद्गलादि को लेकर उनकी वर्त्तना आदि नहीं करता । काल मृत्तिका आदि के समान उपादान कारण भी नहीं होता है । किन्तु स्वयं ही होने वाले पुद्गल आदि पदार्थ इस काल में हो, अन्य काल में नहीं, इस प्रकार काल सिर्फ अपेक्षा कारण है । जैसे पुद्गलादि की गति में धर्मद्रव्य अपेक्षा कारण है, उसी प्रकार मनुष्यलोक में पुद्गलादि द्रव्यो की वर्त्तना में काल को अपेक्षा कारण मानना परमावश्यक है । इस प्रकार मनुष्यलोक में काल का अस्तित्व स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है।
यदि तिर्छ लोक के पदार्थों का उपकार चन्द्र-सूर्य आदि की गति क्रिया से होता है तो वह सूर्य आदि की गतिक्रिया से तिर्छ लोक में उनका उपकार स्पष्ट ही है । देवलोक आदि में चन्द्र सूर्य आदि की गतिक्रिया नहीं होती । उससे उनका उपकार नहीं होतो । इस प्रकार अन्यत्र उनका उपकार स्पष्ट ही है । अतएव मनुष्यलोकवर्ती काल के द्वारा ही अन्यत्र भी काल का व्यवहार समझ लेना चाहिए । सब से छोटा जो समय है, वह भी सूर्य आदि की क्रिया से प्रकट होने वाला दिन आदि का परम लव ही जानना चाहिए।
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧