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________________ दीपिकनियुक्तिश्च अ० २ सू. ५ ___कालद्रव्यस्यामेकत्वनिरूपणम् १९१ एवं यूष-पत्तयादयोऽपि अर्थान्तरतयैव समुन्नेयाः, तथाहि-यूषस्तावत् समुत्पन्नपाकजानां द्रव्याणां कालविशेषानुग्रहे सति द्रव्यान्तरसम्पृक्तानां पाकजोत्पत्तौ संयोगविशेषरूपओदनाद र्थान्तरभूतो भवति एवं पंक्तिरपि एकदिग्देशसम्बन्धिषु परस्परप्रत्यासत्त्युपकृतेषु निर्धारिताऽनिर्धारिते यताकेषु भिन्नाऽभिन्नजातीयेषु आधारेषु विद्यमाना वहुत्त्वसंख्यैव व्यपदिश्यते तस्मात्-- सापेक्षमिदं द्रव्याथिक –पर्यायार्थिकनयद्वयं वस्तुनः सद्भावमापादयति नैकान्तत इति, अतः पुद्गलेषु विवक्षावशाद् रूपात्मिका मूर्तिश्रृंदाऽभेदवर्तिनीति भावः ॥४॥ मूलसूत्रम्- 'आइमाणि तिन्नि एगदब्वाणि अकिरियाणि अंतिमाणि अणंताणि' ॥५॥ छाया-आदिमानि त्रीणि एकद्रव्याणि अक्रियाणि अन्तिमाणि अनम्ताणि ॥५॥ तत्त्वार्थदीपिका-आदिमाणि-प्रथमानि त्रीणि धर्माऽधर्माऽऽकाशानि एकद्रव्याणि एकद्रव्यात्मकानि भवन्ति न तु-कालजीवपुद्गलवद् धर्मादीन्यपि त्रीणि द्रव्याणि प्रत्येकं भिन्नानि बहूनि सन्ति द्रव्यापेक्षया प्रत्येकमेषामेकत्वं भवति क्षेत्रकालभावापेक्षया पुनरसंख्येयत्वमनन्तत्वं बोध्यम्. । तानि पुनर्धर्माऽधर्माऽऽकाशानि त्रीणि द्रव्याणि अक्रियाणि-क्रियारहितानि भवन्ति एवञ्च-यथा जीवद्रव्यं नानाजीवापेक्षया भिन्नं वर्तते. एवं-पुद्गलद्रव्यमपि प्रदेशस्कन्धत्वापेक्षया भिन्नं भवति. एवम् –कालद्रव्यं च अद्वासमयाद्यपेक्षया भिन्न विद्यते, ___ इसी प्रकार यूष और पंक्ति आदि भी अर्थान्तर हो समझना चाहिए। दूसरे दूसरे द्रव्यों के संसर्ग से युक्त, समुत्पन्न पाकज द्रव्यों का कालविशेष का अनुग्रह होने पर पाकज की उत्पत्ति होने पर संयोग विशेष रूप होता है । वह ओदन से भिन्न है। इसी प्रकार पंक्ति भी एक दिशा और देश में स्थित, प्रत्यासत्ति से उपकृत नियत-अनियत संख्या वाले भिन्न अभिन्न जाति वाले आधारों में विद्यमान बहुसंख्या ही कहलाती है । इस कारण दोनों द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय परस्पर सापेक्ष होकर ही वास्तविकता का प्रतिपादन करते है, एकान्त रूप से नहीं । अतएव तात्पर्य यह है कि बिवक्षा के अनुसार रूपात्मिका मूर्ति पुद्गलों में कथंचित्भिन्न और कथंचित् अभिन्न है ॥४॥ मूलसूत्रार्थ---'आइमाणि तिन्नि' इत्यादि सूत्र ॥५॥ आदि के तीन एक-एक द्रव्य हैं और अन्त के तीन द्रव्य अनन्त-अनन्त हैं ॥५॥ तत्वार्थदीपिका -पहले के तीन द्रव्य अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक द्रव्य हैं वे काल, जीव और पुद्गल के समान भिन्न-भिन्न बहुत नहीं हैं द्रव्य की अपेक्षा इनमें से प्रत्येक द्रव्य एक-एक समझना चाहिए. किन्तु क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से असंख्यात तथा अनन्त समझना चाहिए। धर्म, अधर्म और आकाश, यह तीन द्रव्यों क्रियारहित हैं । इस प्रकार जैसे जीवद्रव्य नाना जीवों की अपेक्षा से भिन्न है, पुद्गल द्रव्य भी प्रदेश और स्कंध की अपेक्षा से भिन्न है, इसी प्रकार कालद्रव्य भी अद्धासमय आदि की अपेक्षा से भिन्न है । उसी प्रकार धर्म શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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