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________________ १९२ तत्त्वार्थसूत्रे न तथा-धर्मोऽधर्म आकाशश्च द्रव्यं भिन्न भिन्नं वर्तते इति भावः अन्तिमानि पुनस्त्रीणि द्रव्याणि कालपुद्गलजीवात्मकानि अनन्तानि भवन्तीत्यर्थः ॥५॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः- अथ यथा किल पुद्गलद्रव्यं परमाणुष्यणुकादिभेदेन प्रदेशस्कन्धत्वाद्यपेक्षया अनेकधा भवति एवं कालद्रव्यमपि अद्धासमयावलिकादिभेदेन अनेकधा वर्तते एवम्जीवद्रव्यमपि नारक-देव-तिर्यङ्मनुष्यादिभेदेन अनेकधा भवति तथैव धर्मादिद्रव्याण्यपि किमनेकानि भवन्ति-इत्याशङ्कायामाह--"आइमाणि तिनि एगदव्याणि अकिरियाणि' अंतिमाणि-अणंताणि-इति आदिमानि त्रीणि धर्माऽधर्माऽऽकाशद्रव्याणि एकद्रव्याण्येव भवन्ति, न त्वेषां समानजातीयानि द्रव्यान्तराणि भवन्ति, अविलक्षणोपकारवत्वात् धर्माधर्माकाशानां गति-स्थित्यवगाहोत्पत्त्या प्रभावित उपकारो भवति, सकृत्सकलगतिपरिमाणानां सान्निध्याधानादधर्म इत्युच्यते । "एवं सकृत्सकलस्थितिपरिणामसान्निध्याधानात् अधर्म इति व्यपदिश्यते आकाशन्तेऽस्मिन्द्रव्याणि स्वयं वाऽऽकाशते इत्याकाशम् इति व्युत्पत्त्या धर्मादीनां द्रव्याणां गति-स्थित्यवग्राहदानरूपा उपकारा भवन्ति गत्यादित्रययुक्तं वस्तु अर्थक्रियासमर्थ भवतीत्यनेकान्तवादिभिरभ्युअधर्म और आकाश द्रब्य भिन्न भिन्न नहीं है । तात्पर्य यह है कि अन्त के तीन द्रव्यकाल, पुद्गल और जीव अनन्त हैं ॥५॥ तत्वार्थनियुक्ति-जैसे पुद्गल द्रव्य परमाणु द्वयणुक आदि के भेद से, प्रदेश और स्कंध आदि की अपेक्षा से अनेक प्रकार का है, काल द्रव्य भी अद्धासमय आवलिका आदि के भेद से अनेक प्रकार का है और जैसे जीवद्रव्य नारक, देव, तियेच और मनुष्य आदि के भेद से अनेक प्रकार का है उसी प्रकार क्या धर्म आदि द्रव्य भी अनेक हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं आदि के तीन द्रव्य अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक द्रव्य ही हैं इनके समान जातीय दूसरे द्रव्य नहीं हैं । अर्थात् जैसे एक जीव से दूसरे जीव का पृथक अस्तित्व है और एक जीव अपने आपमें परिपूर्ण द्रव्य है, वैसे धर्म द्रव्य पृथक् पृथक् नहीं है, वह असंख्यात प्रदेशों का एक ही समूह है जो अखण्ड रूप से सम्पूर्ण लोकाकाश व्याप्त है। अधर्म द्रव्य भी ऐसा ही एक अखण्ड द्रव्य है । आकाश भी व्यक्तिशः पृथक् नहीं है वह अनन्तानन्त प्रदेशों का एक ही अखण्ड पिण्ड है । धर्म, अधर्म और आकाश का क्रमशः स्थिति और अवगाह रूप उपकार है । समस्त गति परिणत जीवों और पुद्गलो की गति में सहायक होने वाला धर्मद्रव्य है। इसी प्रकार स्थितिपरिणत सब की स्थिति में सहायता करनेवाला अधर्मद्रव्य है । जिसमें सब द्रव्य प्रकाशित होते हैं या जो स्वयं प्रकाशित होता है, वह आकाश कहलाता है । इस प्रकार की व्युत्पति શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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