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तत्त्वार्थसूत्रे
अथ कथं तावत् केवलज्ञाने सर्वाणि द्रव्याणि, सर्वे पर्यायाश्च विषयी भवन्तीति चेद् उच्यते - केवलज्ञानं सर्वेषां भावानां द्रव्यक्षेत्रकालभावविशिष्टानामवभासकं भवति, सम्पूर्णलोकालोकविषयञ्च, यदिह लोके धर्माधर्मद्रव्यद्वयाविच्छिन्नाकाशरूपे धर्माधर्मद्रव्यद्वयविच्छिन्नाकाशरूपे अलोके च किञ्चिद् ज्ञेयमस्ति तद्यथा - बहिः पश्यति तथैवान्तः पश्यति,
अस्माच्च केवलज्ञानात् परं प्रधानतरं किमपि ज्ञानं नयपरिच्छेदकं नास्ति, नापि - केवलज्ञानविषयात्परं किञ्चिदन्यद् ज्ञेयमस्ति । तथाहि — सर्वद्रव्येषु धर्माऽधर्माऽऽकाशकालपुद्गलजीव रूपेषु सर्वपर्यायेषु चोत्पादादिषु धर्मादीनां च त्रयाणां परापेक्षया उत्पाद - विगमौ भवतः,
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अभिप्राय यह है कि पाँच ज्ञानों में से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सभी द्रव्यों को जानते हैं, किन्तु उनकी कतिपय पर्यायें ही उनका विषय होती हैं; क्योंकि ये दोनों ज्ञान क्षायोपशमिक हैं और क्षायोपशमिक ज्ञान परिपूर्ण नहीं होते । इसके अतिरिक्त ये दोनों ज्ञान इन्द्रियजन्य और मनोजन्य हैं और इस कारण भी वे परिपूर्ण नहीं है ।
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अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन्द्रिय- मनोजन्य नहीं हैं, अतएव वे प्रत्यक्षज्ञान की कोटि में परिगणित हैं, फिर भी क्षायोपशमिक होने के कारण अपूर्ण हैं, अतएव उन्हें चिकल प्रत्यक्ष भी कहते हैं । ये दोनों ज्ञान रूपी द्रव्यों को ही जानते हैं, फिर भी उनमें विषयकृत भिन्नता है । अवधिज्ञान सम्पूर्ण लोक के समस्त रूपी द्रव्यों को जान सकता है, जब कि मनः पर्ययज्ञान सिर्फ मनोवर्गणा के पुद्गलों को ही जानता है । इसी कारण अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवाँ भागही मन:पर्यय का विषय कहा गया है । मन:पर्ययज्ञान अढ़ाई द्वीप के अन्तर्गत जो संज्ञी जीव हैं, उनकी मनोवर्गणाओं को, जानता है । ऐसा होने पर भी मनः पर्यायज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा अत्यन्त विशुद्ध है और जिन रूपी द्रव्यों को जानता है, उनकी बहुतर पर्यायों को जानता है।
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केवलज्ञान के द्वारा समस्त द्रव्य और उनकी समस्त पर्यायें जानी जाती है। पूछा जा सकता है कि केवलज्ञान सब द्रव्यों और सब पर्यायों को कैसे जानता है ? इसका उत्तर यह है कि केवलज्ञान समस्त भावों का अवभासक है तथा सम्पूर्ण लोक और अलोक को जानता है । धर्म और अधर्म द्रव्यों से व्याप्त लोक में और उनसे रहित अलोक में जो कुछ भी ज्ञेय है, उस सब को जानता है ।
केवलज्ञान से बड़ा दूसरा कोई ज्ञान नहीं है और केवलज्ञान की विषय मर्यादा से बाहर कोई ज्ञेय नहीं है । इसका प्रधान कारण यह है कि केवलज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से उत्पन्न होता है । जब ज्ञान को आवृत करने वाला कर्म समूल नष्ट हो जाता है तो आत्मा की ज्ञानशक्ति अपने विशुद्ध परिपूर्ण और स्वाभाविक रूप में प्रकट हो जाती है । उस समय ऐसा कोई ज्ञेय (पदार्थ) नहीं रहता जो केवलज्ञान का विषय न हो ।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧