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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ०२ सू० २ अजीवतत्वनिरूपणम् १८१ यथा शुक्तया विगच्छन् नीलतयोत्पद्यमानः पुद्गल इत्यवस्थितो भवति जीवोऽपि देवत्वेनोत्पद्यमानो मनुष्यतया विगच्छति, जीवत्वेन सर्वदाऽवस्थितो भवति । एवमाकाशकालयोरपि केवलज्ञानविषयताऽवसेया । अतएव - केवलज्ञानं परिपूर्णं समग्रम् असाधारणं निरपेक्ष विशुद्धं सर्वभावज्ञापकं लोकालोकविषयमनन्तपर्यायं भवति । ज्ञेयस्याऽनन्तपर्यायतया तदनुसारेण केवलज्ञानमपि अनन्तपर्यायमवगन्तव्यम् सर्वस्यैव द्रव्यभावजालस्य परिच्छेदकत्वात् केवलज्ञानं परिपूर्णं भवतीति विज्ञेयम् । तथाचोक्तम्–अनुयोगद्वारे—कइविहा णं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ? गोयमा - दुविहा दव्वा पण्णत्ता, तं जहा - जीवदव्वा य-अजीवदव्वा य - " इति । कतिविधानि खलु भदन्त ! द्रव्याणि - प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - जीवद्रव्याणि च अजीवद्रव्याणि चेति । एवमुत्तराध्ययने २८ - अध्ययने ८ - गाथायां चोक्तम् “धम्मो अधम्मो आगासं दव्वं इक्किकमाहियं - अताणि यदव्वाणि - कालो पुग्गलजंतबो - ॥१॥ इति " छाया - धर्मोऽधर्ममाकाशं द्रव्यमेकैकमाहितम् । अनन्तानि च द्रव्याणि काल: पुद्गलजन्तव इति ॥ सू० २ || धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव, इन सभी द्रव्यों में प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और धौव्य रहता है । जो भी सत् पदार्थ है वह उत्पाद व्यय और धौव्यात्मक ही होता है। किसी वस्त्र का श्वेत वर्ण नष्ट होता है, उसमें तीन वर्ण का उत्पाद होता है, किन्तु वस्त्र द्रव्य दोनों अवस्थाओं में कायम रहता है । इसी प्रकार पूर्व पर्याय का विनाश और उत्तर पर्याय का उत्पाद होने पर भी द्रव्य ध्रुव ज्यों का त्यों बना रहता है । जैसे जीव देव पर्याय के रूप में उत्पन्न होता है, मनुष्य पर्याय के रूप में विनष्ट होता है मगर जीव के रूप में सर्वदा अवस्थित रहता है । इन सब पर्यायों को केवल ज्ञान साक्षात् जानता है । इसी प्रकार आकाश और काल जैसे अपूर्व द्रव्य भी केवलज्ञान के द्वारा जाने जाते हैं । अतएव केवलज्ञान परिपूर्ण समग्र असाधारण, निरपेक्ष, विशुद्ध, सर्वभावों का ज्ञायक, लोकालोक को विषय करने वाला और अनन्त पर्यायों वाला है । एक - एक ज्ञेय की स्व-परपर्यायों की गणना की जाय तो वह अनन्तानन्त हैं । ऐसे अनन्तानन्त पर्यायों वाले अनन्तानन्त ज्ञेय पदार्थ केवलज्ञान के विषय हैं । ऐसी स्थिति में केवलज्ञान की अनन्तानन्त पर्यायें हैं, यह समझना कठिन नहीं है । अनुयोगद्वार के १४१ वें सूत्र में कहा है । प्रश्न- भगवन् ! द्रव्य कितने प्रकार के कहे हैं ? उत्तर - गौतम ! द्रव्य दो प्रकार के कहे हैं—जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य । उत्तराध्ययन के अध्ययन २८ की आठवीं गाथा में कहा है-- धर्मास्तिकाय, अधर्मा શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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