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________________ दीपिकानियुक्तश्च अ. २ सू० २ अजीवतत्व निरूपणम् १७९ तथाच- मतिज्ञानश्रुतज्ञानाभ्यां सर्वाणि द्रव्याणि धर्माधर्माssकाशकालपुद्गलाजीव रूपाणि जानाति, न तु तेषाँ धर्माऽधर्मादीनां सर्वद्रव्याणां सर्वान् उत्पातादीन् पर्यायान् जानाति, मतिज्ञानी तावत् श्रुतज्ञानेनोपलब्धेष्वर्थेषु यदाऽक्षरपरिपार्टी विनैव स्वभ्यस्तविद्यः सन् द्रव्याणि ध्यायति तदा-सर्वद्रव्याणि धर्माधर्मादीनि मतिज्ञानविषयतया भासन्ते न तु तेषां सर्वान् पर्यायान् जानाति, अल्पकालत्वात्-मनसश्वाशक्तेः एवं श्रुतज्ञानानुसारेण सर्वाणि धर्मादीनि जानाति न तु तेषां सर्व पर्यायान् वेत्ति अवधिज्ञानेन तु रूपिद्रव्याण्येव पुद्गलद्रव्य स्वरूपाणि जानाति, न तु सर्वपर्यायान् जानाति, अत्यन्तविशुद्धावधिज्ञानेनापि रूपिण्येव द्रव्याणि पुद्गलद्रव्यात्मकानि जानाति तान्यपि रूपद्रव्याणि न सर्वैः पर्यायै: अतीतानागतवर्तमानैरुत्पादव्ययधौव्यादिभिरनन्तैः पर्यायैर्जानातीति भावः । याच रूपीणि द्रव्याणि पुद्गलात्मकानि शुक्लादिगुणोपेतानि अवधिज्ञानेन जानाति तेषामवधिज्ञानविषयीकृतरूपिद्रव्याणामनन्तभागमेकं मन:पर्ययज्ञानेन जानाति, तान्यपि - अवधिज्ञानविषयानन्तभागवर्तीनि रूपाणि द्रव्याणि न कुड्याद्याकारव्यवस्थितानि जानाति, अपितु - मनोरहस्यविचारगतानि, तान्यपि द्रव्याणि न सर्वलोकवर्तीनि जानाति अपितु मनुष्यक्षेत्रे व्यवस्थितान्येव जानाति । अवधिज्ञानिनः सकाशात् विशुद्धतराणि बहुतरपर्यायाणि जानाति, केवलज्ञानेन पुनः सर्वद्रव्याणि तेषां सर्वपर्यायांश्च जाना ति । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के द्वारा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव रूप सब द्रव्यों को जीव जानता है, किन्तु धर्म अधर्म आदि सब द्रव्यों की सब उत्पाद आदि पर्यायों को नहीं जानता है । मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी के द्वारा जाने हुए पदार्थों में जब अक्षर परिपाटी के बिना ही, विद्या का भलीभाँति अभ्यास करके द्रव्यों का चिन्तन करता है, जब धर्म अधर्म आदि समस्त द्रव्य मतिज्ञान के विषय रूप प्रतिभासित होते हैं; मगर मतिज्ञानी उनके सब पर्यायों को नहीं जानता । इसका कारण है काल की अल्पता और मन की अशक्ति इसी प्रकार श्रुतज्ञान के अनुसार धर्म आदि सब द्रव्यों को जानता है, किन्तु सब पर्यायों को नहीं जानता । अवधिज्ञान के द्वारा रूपी द्रव्यों को - पुद्गलद्रव्यों को ही जानता है किन्तु सब पर्यायों को नहीं । अवधिज्ञान अत्यन्त विशुद्ध हो तो भी उसके द्वारा रूपीद्रव्य पुद्गल ही जाने जा सकते हैं और वे रूपी द्रव्य भी सब पर्यायों से नहीं । भाव यह है कि अतीत, अनागत और वर्त्तमान काल संबन्धी उत्पाद, व्यय और धौम्य आदि अनन्त पर्यायों से जानता है । और जिन शुक्ल आदि गुणों से युक्त पुद्गल रूप रूपी द्रव्यों को अवधिज्ञान से जानता है, उनके अनन्तवें भाग को मन:पर्यय ज्ञान से जानता है । उन अनन्तवें भोगवर्त्ती रूपी द्रव्यों को भी दीवार के सहारे रहे हुओं को नहीं, वरन् मनोगतों को जानता है । उन द्रव्यों को भी सम्पूर्ण लोक में रहे हुओं को नहीं वरन् मनुष्यक्षेत्र के भीतर ही जानता हैं और अवधिज्ञानी की अपेक्षा विशुद्धतर और बहुतर पर्यायों को जानता है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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