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________________ १७८ तत्त्वार्थसूत्रे पिण्डातिरिक्तवृत्त्यन्तरावस्थाप्रकाशतादशायां जायते इति व्यवहारः । स व्यापारे च भवनवृत्तिः. अस्तीत्यनेन निर्व्यापारात्मकसत्ता-उच्यते, भवनवृत्तिरुदासीना, विपरिणमते इत्यनेन पुनस्तिरोभूतात् प्ररूपस्याऽनुच्छिन्नतयाऽनुवृत्तिकस्य रूपान्तरेण भवनमुच्यते ।। यथा-दुग्धं दधिभावेन परिणमति विकारान्तरवृत्त्या भवनमवतिष्ठते वृत्त्यन्तरव्यक्तिवृत्तिः हेतुभाववृत्तिर्वा परिणाम आख्यायते, वर्धते इत्यनेन तु उक्तस्वरूपः परिणामः उपचयेन प्रवर्तते, यथाऽङ्कुरो वर्धते, उपचयशालिपरिणामरूपेण भवनवृत्तिय॑ज्यते, अपक्षीयते इत्यनेन पुनः पूर्वोक्तस्वरूपस्यैव परिणामस्याऽपचयवृत्तिराख्यायते, दुर्बलतामासादयत् पुरुषवदपचयभवनरूपवृत्त्यन्तरव्यक्तिरुच्यते । विनश्यतीत्यनेन भवनवृत्तेराविर्भूततिरोभवनमाख्यायते, यथा-घटो विनष्ट इत्यनेन प्रतिविशिष्टसमवस्थानात्मिका भवनवृत्तिस्तिरोभूता, न तु अस्वभावतैव संजाता, कपालाद्युत्तरभवनवृत्त्यन्तरक्रमावच्छिन्नरूपत्वाद् इत्येवमादिभिराकारैर्द्रव्याण्येव भवनलक्षणानि व्यपदिश्यन्ते इति भावः हुए पुरुष के समान । अर्थात् जैसे पुरुष की ये अवस्थाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं, मगर सब अवस्थाओं में पुरुष ज्यों का त्यों वही रहता है, इसी प्रकार पर्यायों के पलटते रहने पर भी मूल द्रव्य एक रूप ही बना रहता है । यही बात यों भी कही जाती है-उत्पन्न होता है, पलटता है बढ़ता है, घटता है और बिनष्ट भी होता है।" पिण्डातिरिक्त बृत्यन्तर-अवस्था प्रकाशता की दशा में 'जायते' (उत्पन्न होता है) ऐसा व्यवहार होता है; व्यापार सहित होने पर भवनवृत्ति होती है । 'अस्ति' (है) इससे व्यापार शून्य सत्ता कही जाती है, भवनवृत्ति उदासीन है, 'विपरिणमते' (पलटता) है) इसके द्वारा अनुवृत्ति वाली वस्तु का रूपान्तर से होना कहा जाता है। जैसे दूध दधि रूप से परिणत होता है, यहाँ विकारान्तरवृत्ति से 'भवन' कायम रहता है । जो व्यक्त्यन्तर व्यक्तिवृत्ति हो या हेतुभाववृत्ति हो वह परिणाम कहलाता है। 'वर्धते' यहाँ उक्त स्वरूप वाला परिणाम उपचय रूप में प्रवृत्त होता है, जैसे अंकुर बढ़ता है अर्थात् उपचयशाली परिणाम रूप से 'भवन' की वृत्ति व्यक्त होती है । 'अपचीयते' (घटता है) इस शब्द से पूर्वोक्त स्वरूप वाले परिणाम की अपचयवृत्ति प्रकट की जाती है- दुर्बलता को प्राप्त होने वाले पुरुष के समान अपचय भवन रूप नवीन वृत्ति का प्रकट होना कहा जाता है । विनश्यति' इस पद के द्वारा भवनवृत्ति का आविर्भूत-तिरोभाव कहा जाता है । जैसे घट विनष्ट हो गया, इस वाक्य का अर्थ यही है कि विशिष्ट समवस्थान रूप भवनवृत्त तिरोहित हो गई (छिप गई) इसका आशय यह नहीं कि कोई स्वभावहीनता उत्पन्न हो गई-शून्यता आ गई; क्योंकि घटआकार के पश्चात् कपाल आदि रूप नवीन भवनवृत्ति देखी जाती है । इत्यादि आकारों के द्वारा द्रव्य ही भवन लक्षण वाले कहलाते हैं । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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