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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ स्. ४१ नारकादोनामायुःस्थितिनिरूपम् १६७ अपबायुषो भवन्ति ? के च अनपवायुषः इत्याकाङ्क्षायामुच्यते । उपपातआत्मानो नारकदेवाः चरमदेहाः मनुष्याः ये च तेनैव शरीरेण मिध्यन्ति, उत्तमपुरुषाः तीर्थकरचक्रवर्तिबलदेववासुदेवा असंख्येयवर्षायुषो मनुष्याः, तिर्यग्योनिजाश्च, अनपवायुषो निरुपक्रमायुषो भवन्ति । तत्र-ये तेनैव शरीरेण सकलकर्मजालमपहायाऽशेषकर्मापगमलक्षणां सिद्धिमाप्नुवन्ति ते चरमदेहा मनुष्या एव भवन्ति न तु-नारकतिर्यग्देवाः तेषां सिद्धयग्यत्वात् । उत्तम पुरुषास्तु-तीर्थकरनामकर्मोदयवजिनस्तीर्थकराः चक्रवर्तिनो नवनिधिपतयश्चतुर्दशरत्नानां नेतारः स्वपौरुषोपात्तमहाभोगशालिनः सकलभरताधिपाः अर्धचक्रवर्तिनो बलदेवाः, गणधरादयश्च गृह्यन्ते । असंख्येयवर्षायुषो मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाश्च भवन्ति, न तु नारकदेवाः, मनुष्येषु तिर्यग्योनिष्वेव चाऽसंख्येयवर्षजोवित्वमुपलभ्यते, न तु-नारकदेवेषु । तत्र देवकुरूत्तरकुरुषु सान्तरद्वीपकासु-अकर्मभूमिषु कर्मभूमिषु च सुषमसुषमायां सुषमायां सुषमदुष्षमायामसंख्येयवर्षायुषो मनुष्या भवन्ति । ___ तत्रैव च देवकुर्वादिषु बाह्येषु मनुष्यक्षेत्राद् बहिर्वर्तमानेषु द्वीपेषु समुद्रेषु च तिर्थग्योनिजा असंख्येयवर्षायुषो न भवन्ति, किन्तु संख्येयवर्षायुषो भवन्ति कर्मभूमिष्वपि सुषमआदिकाले असंख्येय अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । कौन जीव अपवर्तनीय आयु वाले होते हैं और कौन अनपवर्तनीय आयु वाले ? इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर कहते हैं। उपपातजन्म वाले नारक और देव, चरम शरोरी मनुष्य (जो उसी शरीर से सिद्धि प्राप्त करने वाले हैं) उत्तम पुरुष अर्थात् तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, और असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य तथा तिर्यंच निरुपक्रम आयु वाले होते हैं। जो उसी शरीर से समस्त कर्म-जाल को नष्ट करके समस्त कर्मक्षय रूप सिद्धि प्राप्त करते हैं, वे चरमशरीरी मनुष्य ही होते है, नारक, तिर्यंच या देव नहीं क्योंकि वे सिद्धि के योग्य नहीं होते। जिन्हें तीर्थकर नाम कर्म का उदय हो चुका है, वे तीर्थंकर कहलाते हैं । नौ निधियाँ और चौदह रत्नों के अधीश्वर, अपने पुरुषार्थ से महान् भोगशाली और सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के स्वामी चक्रवर्ती कहलाते हैं । अर्धचक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव कहे जाते हैं । गणधर आदि चरमशरीरो की श्रेणी में गिने जाते हैं । असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच निरुपक्रम वाले होते हैं, मनुष्यों और तिर्यंचों में ही असंख्यात वर्ष जीवन पाया जाता है, नारकों और देवों में नहीं देवकुरु, उत्तर कुरु अन्तर्वीपों सहित अकर्मभूमियों में तथा सुषमसुषमा काल, सुषमा काल और શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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