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________________ १६६ तत्त्वार्थसूत्रे पुला नाडिकाप्रविष्टत्वेन संहतिमत्वात् विषशस्त्रवह्नचादीनाममेघा भवन्ति । मन्दतीव्रपरिणामसन्निधानाच्च स जीवस्तदायुर्जन्मान्तरे एव रचयति अत्रत्य जन्मव्याधिवत् । अल्पाद् धातुवैषम्यनिदानपथ्यसेवनात् समुत्पन्नो व्याधिः कालान्तरेणोपेक्ष्यमाणोऽत्यन्तां वृद्धिमापन्नः सन् शरीरं चिरेण समूलघातमपहन्ति । निपुणवैद्यवरोपदिष्टतत्प्रत्यनीकक्रियाकलापानुष्ठानाच्च झटित्येव स व्याधिः बिनाशमापद्यते, एवमेव मन्दपरीणामप्रयोगकारणाभ्यासाद् यद् आयुरतीतजन्मनि - अनेकजीवनासादितं तदपवर्तनार्हमुच्यते । यस्तु-व्याधिः अतिमहान्तं धातुक्षोभमाश्रित्याऽपयनिदान सेवनादिना सञ्जातः अतिदीर्घकालकलापापादितजठरिमसमुपगूढनिरवशेषाऽङ्गोपाङ्ग संघातकुष्ट - क्षयादिवत् स खलु दुश्चिकित्स्यो व्याधिर्भैषज्यजातमनेकधमुपचीयमानमपि उत्तरोत्तरमवगणय्य प्रवृद्धः सन् रोगिणं तम् अकाण्ड एव क्षिप्रमेव मसति, न खलु प्रयत्नपरेणाऽपि धन्वन्तरिणा समुच्छेत्तुं शक्यते । एवमेव तीव्रपरिणामप्रयोगबीज जनितशक्तितद् आयुरतीतानेकजन्मनि - उपात्तमन्तराले न शक्यं समुच्छेत्तुमिति तदपवर्तनोयं व्यपदिष्यते । तथहि-आयुषः काले-Sकाले च समाप्तौ अनेको दृष्टो दृष्टान्तो भवति । बलवत्वाच्च ततः श्रोतुः प्रतोति रुपजायते, तस्मात् - द्विविधमायु अपवर्त्य मनपवर्त्यं च व्यवस्थितम् । तत्र के तावद् अवस्था को प्राप्त करके जीव जिन आयुष्क के पुद्गलों को बाँधता है, वे आयुष्कपुद्गल नाडिकाप्रविष्ट होने के कारण संहति रूप होते है, अतः विष, शस्त्र, अग्नी आदि के लिए अभेद्य होते है । मन्द- तीव्र परिणाम होने से वह जीवन उस आयु को जन्मान्तर में ही बाँधता है, इस जन्म की व्याधि के समान । थोड़ी-सी धातुविषमता के कारणभूत अपथ्यसेवन से उत्पन्न हुआ रोग लापरवाही से कालान्तर में बहुत बढ़ जाता है और शरीर का समूल घात कर डालता है तथा निपुण वैद्य के द्वारा उपदिष्ट रोगविरोधी क्रियाकलाप के सेवन से वह व्याधि शिघ्र ही विनष्ट हो जाती है । इसी प्रकार जो आयु मन्द परिणाम - प्रयत्न के कारण पिछले भव में गाढी नहीं बाँधी गई है, वह अपवर्त्तना के योग्य होता है । इसके विपरीत जो व्याधि अत्यन्त तीव्र धातुक्षोभ को आश्रित करके अपथ्य सेबन आदि से उत्पन्न हुआ है और कुष्ट रोग अथवा क्षय के समान दीर्घकालिक हो जाने से शरीर के समस्त अंगोपागों में व्याप्त हो गई है, उसकी चिकित्सा होना बहुत कठिन होता है । विविध प्रकार के औधों का सेवन करने पर भी वह उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं और रोगी को अकाल में हो निगल लेती है, अधिक से अधिक प्रयत्न करके धन्वन्तरि भी उस रोग को नष्ट नहीं कर सकता इसी प्रकार जो आयु तीव्र परिणाम- प्रयोग से प्रगाढ़ रूप में बँधा हुआ है, उसका अपवर्त्तन नहीं हो सकता- - वह शीघ्र समाप्त नहीं हो सकता । वह अपवर्त्तनीय आयु कहलाती है । आयु के यथाकाल और अकाल में समाप्त होने के अनेक दृष्टान्त विद्यमान है । सबल होने के कारण श्रोता को प्रतीति उत्पन्न हो जाती है । अतएव आयु दोनों प्रकार का है શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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