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________________ दोपिकानियुक्तिश्च अ०१ सू. ४१ नारकादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् १६५ से पक्रमायुषः पुनः पञ्चेन्द्रिया अनियमतो त्रिभागावशेषेणादारभ्य यावत्सप्तविंशतितम विभागावशेषे परभवायुर्वघ्नन्ति । ते च जोवास्तदैव तदायुर्बध्नन्तोऽध्यवसायविशेषात् केचनाऽपवर्तनाहमायुः कुर्वन्ति, केचन पुनरनपवर्तनीयमायुः कुर्वन्ति । तत्र-मन्दपरिणामप्रयोगोपचितमनपवर्त्यमायुर्भवति, तीव्रपरिणामप्रयोगोपचितमनपवय॑म् । तत्रापवर्तना तावत् प्राक्तनजन्मविरचितायुः स्थितेरध्यवसानादि विशेषात् । अल्पताऽऽपादनरूपा। अनपवर्तनीयत्वन्तु – तावत्कालस्थितिकत्वरूपम् स्वकालावधेः प्राक् न हासप्राप्तिः कदाऽप्यायुषो भवति, तैलवर्तिकाक्षयेण निर्विघातप्रदीपोपशान्तिवत् । तच्च प्रबलतरवीर्यारब्धत्वाद असंख्येयसमयोपार्जितमायुरनपवत्यै भवति । ___ एवं गाढ बन्धनात् निकाचितबन्धात्मनियमादनपवायुभवति । अथवा एकनाडिकापरिगृहोतमायुः संहतिमत्वात् संहतपुरुषममुदायवत् एकनाडिका विवरप्रक्षिप्तबीजनिष्पादितसस्यसंहतिवद् वाऽभेद्यस् , विवराद्वहि :पतितबीजप्रसूतं सस्यमसंहतत्वात् प्रविरलतायां सत्यां सर्वेषामेव गो-महिषादिपशूनां गम्यं भवति । एवमेवाऽयं जीव आयुर्बघ्नन् अनेकात्मलब्धिपरिणामस्वाभाव्याच्छरीरव्याप्यपि सन् नाडिकामार्गपरिणामो भवति । तदनन्तरं तामवस्थामासाद्य यान् आयुष्कपुद्गलान् बध्नाति ते आयुष्कका बन्ध करते है। सोपक्रम आयु वाले पंचेन्द्रियों के लिए ऐसा नियम नहीं है वे तिसरे भाग में, नौवें भाग में या सत्ताईसवें भाग में आगामी भव की आयु वाँधते हैं । जीव जब आयु बाँधते हैं तो अध्यवसाय की विशेषता से कोई अपवर्तना के योग्य आयु बाँधते हैं और कोई अनपवर्तनीय आयु का बन्ध करते हैं । तोत्र परिणाम के द्वारा जो गाढी आयु बाँधा जाता है वह अपवर्तनोय होता है । __ अपवर्तनीय का मतलब है-पूर्व जन्म में बाँधा हुआ । आयु की स्थिति का अध्यवसान आदि कारणों में से किसी कारण के द्वारा अल्प हो जाना और आयु के अनपवर्तन का अभिप्राय है जितने काल को आयु बँधी है उतने ही काल में भोगने योग्य होना । यह आयु अपनी कालावधिके अनुसार ही भोगा जाता है, हास को प्राप्त नहीं होता । जैसे किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित न हो तो तेल और बत्ती का क्षय होने पर दीपक का बुझना । यह आयु प्रबलतर वीर्य पराक्रम से बाँधा जाता है, अतएव अपवर्तनीय नहीं होता। ___ इस प्रकार गाढो बाँधने के कारण निकाचित रूप में बद्ध होने से आयु अनपवर्तनीय होता है अथवा एक नाडिका द्वारा परिगृहीत समुदाय रूप होने से इकट्ठे हुए पुरुषों के समुदाय के समान, अथवा एक नाडिका के विवर में डाले हुए बीजों से उत्पन्न धान्य के समूह के समान अभेद्य होता है, किन्तु विवर (छिद्र) से बाहर पडे हुए बीज से उत्पन्न धान्य संहत (सघन) न होने से वह गाय भैंस आदि पशुओं के लिए गम्य होता है । __इसी प्रकार आयु का बन्ध करता हुआ यह जीव अनेक आत्मलब्धिपरिणाम स्वभाव होने से शरीरव्यापी होने पर भी नाडिकामार्ग परिमाण वाला होता है । तत्पश्चात् उस શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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