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________________ तत्त्वार्थसूत्रे वर्षायुष्का तिर्यंचो भवन्ति । तत्रापि-औपपातिका नारकदेवाः असंख्येयवर्षायुषश्च मनुष्यनिर्यगयोनिजा निरुपक्रमा अनपवायुषो भवन्ति तेषां प्राणापानाहारनिरोधाध्यवसाननिमित्तवेदनापराधातस्पर्शरूपादिवेदनाविशेषायुर्भेदकोपक्रमाभावात् , अतो निरूपक्रमा एव ते भवन्ति । भख्येयवर्षायुभ्यो व्यतिरिक्ता मनुष्या, तिर्यग्योनिजाश्च केचित् प्राणापाननिरोधादिकारणकलापोपक्रम्यत्वात् सोपक्रमायुषः केचित्पुनः प्राणापानादिभिर्नोपक्रम्यन्ते इति निरुपक्रमायुषोऽपवायुषोऽनपवायुषश्च भवन्ति । तत्र-येऽपवायुषो मनुष्यास्तिर्यञ्चस्ते नियमतः सोपक्रमायुषः । ये तुअनपवायुषस्ते निरुपक्रमायुषो बोध्याः । तत्र-येऽपवायुषो भवन्ति तेषां विषशस्त्र-कण्टका-ग्न्यु- दकसर्पा-ऽजीर्णाऽशनिप्रपातो-द्वन्धनचापदादिभिः, क्षु-त्पिपासा-शीतोष्णादिभिश्च द्वन्द्वोपक्रमैरायुरपवर्त्यते, तत्रापवर्तनं तावद्झटितिअन्तर्मुहूर्तात् कर्मफलोपभोगरूपम् आयुषः स्वल्पीभवनम् उपक्रमश्चाऽपवर्तननिमित्तं भवति । अथ यदि कर्मविनाशलक्षणमपवर्तनमुच्यते, तदा-कृतनाशः प्रसज्येत, आयुष्कं कर्मफलमदत्वैव विनश्यति-यतो नाऽनुभूयते तत्, नापि वेद्यते । अनिष्टञ्चैतत् यतोऽवश्यमुपात्तं कर्म अनूरूपं सुषमदुषमाकाल में असंख्यात वर्ष को आयु वाले मनुष्य होते हैं। उन्हीं देवकुरु आदि में तथा मनुष्य क्षेत्र से बाहर के द्वीपों और समुद्रों में असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच नहीं हैं । औपपातिक नारक और देव तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यच निरुपक्रम-अनपवर्त्य आयु वाले होते हैं । उनके प्राणापाननिरोध, आहारनिरोध, अध्यवसान, निमित्त वेदना, पराधाततथा स्पर्श आदि वेदना विशेष, जो आयु के भेद का उपक्रम हैं, वे नहीं होते हैं। अतएव वे निरुपक्रम आयु वाले गिने जाते है। असंख्यात वर्ष की आयु वालों से भिन्न मनुष्यों और तिर्यचों में कोई कोई प्राणापाननिरोध आदि किसी कारण के मिलने के कारण सोपक्रम आयु वाले होते हैं। कोई-कोई ऐसे भी होते है जिसको आयु का उपक्रम नहीं होता, अतः वे अपवर्तनीय आयुवाले और अनपवर्तनीय आयु वाले दोनों प्रकार के होते हैं। जो मनुष्य और तिर्यंच अपवर्त्य आयु वाले होते हैं । वे नियम से सोपक्रम आयु वाले होते हैं और जो अनपवर्त्य आयु वाले होते हैं, वे निरुपक्रम आयु वाले होते हैं। जो जीव अपवर्त्य आयुबाले होते हैं, उनकी आयु विष; शस्त्र कंटक अग्नि, जल सर्प, अजीर्ण अशनिपात, फाँसी, हिंसकपशु क्षुधा, पिपासा शीत एवं उष्णता आदि उपक्रमों से अपवर्तित हो जाता है । अपवर्तित होने का अर्थ है-शीघ्र ही अन्तर्मुहूर्त काल में आयु के दलिकों को भोग लेना, आयु का स्वल्प हो जाना और अपवर्तन का कारण पूर्वोक्त निमित्त होते हैं। शंका-यदि अपवर्तन का अर्थ कर्म का विनाश होता है तो कृतनाश का प्रसंग आता है, क्योंकि आयुकर्म अपना फल दिये बिना ही नष्ट हो जाता है । बाँधने पर भी उसका फल नहीं भोगा जाता । यह मन्तव्य इष्ट भी नहीं है, क्योंकि बाँधा हुआ कर्म कर्ता को શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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