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________________ १४४ तत्त्वार्थस्त्रे एतैः कारणैर्महात्माऽऽहारकलब्धि प्रकटय्याऽऽहारकशरीरं गृह्णाति । तथाच-प्राणिदयादिकारणैः आहारकलब्धि प्रकटय्य, आहारकशरीरं प्राप्य च तीर्थकरसमीपे गच्छति ।। तत्र यदि तीर्थङ्करो न मिलति तदा हस्तप्रमाणमात्रात्-आहारकशरीरात् बदमुष्टिहस्तप्रमाणं शरीरं निःसृत्य तीर्थङ्करसमीपे गच्छति । तत्र च-सर्वं निर्णयं विधाय पुनः परावर्त्य हस्तप्रमाणशरीरे प्रविशति, हस्तप्रमाणशरीराच्च मुनिशरीरे प्रविशति इत्यभिप्रायः । उक्तंच----पाणिदय-रिद्धिदरिसण-छम्मत्थोवग्गहणहेऊ वा, संसयवुच्छेयत्थं, गमणं जिणपायमूलम्मि"-इति । प्राणिदया-ऋद्धिदर्शन-छद्मस्थावग्रहणहेतोर्वा, संशयव्युच्छेदनार्थ गमनं जिनपादमूले इति । तथाचा-ऽऽहारकं शरीरं शुभकर्मणः आहारककाययोगस्य कारणत्वात् शुभं व्यपदिश्यते एवं विशुद्धस्य पुण्यस्य कर्मणोऽशबलस्य निरवद्यस्य कार्यत्वाद् विशुद्धं चोच्यते । एवम्-आहारकशरीरेणाऽन्यस्य व्याघातो न भवति, नाऽप्यन्येनाऽऽहारकस्य व्याघातो भवति । ___ यदा खलु आहारकशरीरं निर्वर्तयितुमारभते तदा प्रमत्तो भवति । अतएव–प्रमत्तसंयतस्यैवाऽऽहारकं भवति, नाऽन्यस्य । प्रमत्तसंयतस्याऽन्यद् औदारिकं तु भवत्येवेति भावः ॥३५॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः--आहारकं शरीरम्-एकविधम् , एकप्रकारकमेवाऽवगन्तव्यम् । तदपिप्राणी की दया (२) तीर्थंकर भगवान् की ऋद्धि का दर्शन (३) छद्मस्थ का अवग्रहण अर्थात् नया ज्ञान ग्रहण और (४) संशय का निवारण । इन्हीं चार प्रयोजनों से मुनि आहारक लब्धि प्रकट करके आहारक शरीर का निर्माण करता है । __ मुनि ने आहारक शरीर का निर्माण करके उसे तीर्थंकर के पास भेजा और कदाचित् वहाँ तीर्थंकर न मिले तो उस एक हाथ प्रमाण वाले आहारक शरीर में से मुट्ठीबंधे हाथ के बराबर दूसरा आहारक शरीर निकलता है और वह तीर्थंकर के पास जाता है, वहाँ अपने मन का समाधान करके पुनः लौटता है और एक हाथ प्रमाण प्रथम शरीर में प्रविष्ट होता है और वह प्रथम शरीर मुनि के मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है । कहा भी हैं 'प्राणी की दया के लिए, तीर्थकर की ऋद्धि को देखने के लिए, छद्मस्थ के अवग्रहण के लिए अथवा संशय को दूर करने के लिए जिनेन्द्र भगवान् के पादमूल में गमन करता हैं ।' आहारक शरीर शुभकर्म का आहारक काययोग का कारण होने से शुभ कहा जाता है। इसी प्रकार विशुद्धनिर्दोष कर्म का कार्य होने से विशुद्ध भी कहलाता है । आहारक शरीर किसी को रुकावट पैदा नहीं करता और न कोई उसे रोक सकता है । इसलिये उसे अप्रतिघाती कहते है। मुनि जब आहारक शरीर का निर्माण करना प्रारंभ करता है तब प्रमादयुक्त होता है, अतः प्रमत्तसंयत को ही आहारक शरीर होता है, अन्य किसी को नहीं । प्रमत्तसंयत को दूसरा औदारिक शरीर तो होता ही है, यह बात ध्यान में रहनी चाहिए ॥३५॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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