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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. १ सू०३५ आहारकशरीरनिरूपणम् १४३ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे तैजसशरीरं प्ररूपितम् । सम्प्रति-आहारकशरीरमाह'आहारगं एगविहं, पमत्तसंजयस्स चेव"-आहारकं शरीरं चैकविधमेव प्रमत्तसंयतस्यैव चतुर्दशपूर्वधरस्य । एवञ्च–आहारकशरीरं तावत् प्रमत्तसंयतस्यैव निष्पद्यते । प्रमत्तसंयतस्य यदा खलु वक्ष्यमाणप्राणिदयादिकारणमुत्पद्यते, तदा स विचारं करोति परमदेवतीर्थकरदर्शनमन्तराऽयं संशयो न विनश्यति, स च भगवान् तीर्थकरोऽस्मिन् क्षेत्रे न विद्यते "इदानीमस्माभिः किं कर्तव्यम्" इत्येवं विधां चिन्तां कुर्वाणे सति प्रमत्तसंयते तस्य प्रमत्तसंयतस्य शरीराद् तालुप्रदेशे विद्यमानाद् रोमानस्याऽष्टमभागरूपाच्छिद्रात् हस्तप्रमाणं घनघटितस्फटिकाकारं पुत्तलकं निर्गतं भवति । तत्पुत्तलकं यत्र कुत्रापि क्षेत्र परमदेवतीर्थकरः केवली वा तिष्ठति, तस्मिन् क्षेत्रे गच्छति तस्य शरीरस्पर्श विधाय स्वकार्य सम्पाद्य पश्चात् परावर्तते, तेनैव तालुच्छिद्रेण तस्य प्रमत्तसंयतस्य मुनेः शरीरे प्रविशति एवं सति तस्य मुनेः स संशयो विनश्यति । अर्थात्-वक्ष्यमाणचतुर्भिः कारणैश्चतुर्वारं कृत्वा मोक्षं प्राप्नोति-आहारकलब्धि प्रकटयति । तद्यथा-प्राणिदया-१ तीर्थकरऋद्धिदर्शनम्-२ छद्मस्थावग्रहणम्-३ संशयव्यवच्छेदनार्थम् ४ अर्थ-आहारक शरीर एक ही प्रकार का है और वह प्रमत्त संयत को ही प्राप्त होता है ॥३५॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में तैजस शरीर की प्ररूपणा की गई है; अब क्रमप्राप्त आहारक शरीर का कथन किया जाता है आहारक शरीर एक ही प्रकार का होता है और वह चौदह पूर्वो के धारक प्रमत्तसंयत को ही प्राप्त होता है। प्रमत्त संयत अर्थात् षष्ठ गुणस्थानवर्ती साधु के मन में जब आगे कहे जाने वाले प्राणिदया तत्त्वजिज्ञासा आदि में से कोई कारण उत्पन्न होता है, तब वह सोचता है-परमदेव तीर्थकर भगवान् के दर्शन के बिना इस संशय का निवारण नहीं होगा और इस क्षेत्र में तीर्थकर भगवन् विद्यमान नहीं हैं । ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए ? इस प्रकार की चिन्ता करने वाले प्रमत्तसंयत के शरीर से तालुप्रदेश से विद्यमान बालाग्र के आठवें भाग के बराबर छोटे से छिद्र से एक हाथ के बरावर ढोस बना हुआ स्फटिक मणि जैसा स्वच्छ एक पुतला निकलता है । वह पुतला उस जगह जाता है, जहाँ तीर्थकर भगवान् या केवली स्थित हों, वहाँ उनके शरीर का स्पर्श करके और अपना प्रयोजन पूरा करके वापिस लौट आता है । फिर उसी साधु के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है । ऐसा होने पर उस साधु का संशय दूर हो जाता। यह आहारक शरीर इन चार कारणों से चार बार किया जा सकता है और फिर उस साधु को मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसी को आहारक लब्धि प्रकट करना कहते है। जिन चार प्रयोजनों से आहारक शरीर का निर्माण किया जाता है, वे इस प्रकार हैं--(१) શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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