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________________ ~ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ०१ सू. ३५ आहारकशरीरनिरूपणम् १४५ प्रमत्तसंयतस्यैव भवति, अन्तर्मुहूर्तकालपरिमाणमिदं भवति । तच्चाऽऽहारकं शरीरं शुभद्रव्योपचितं शुभैव्योपचितैरिष्टवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शालिभिरुपचितं निष्पादितं भवति । शुभपरिणामाच्चशुभः परिणामः समचतुस्र संस्थानमाकारो यस्य तच्छुभपरिणाम चाहारकं भवति । एवं विशुद्धद्रव्योपचितम्-असावधं चाहारकं बोध्यम् । निरवद्याहारपानीयादिभिरिदं भवति । तत्र-स्वच्छस्फटिकखण्डमिव निखिलवस्तुप्रतिबिम्बाधारभूतं विशुद्धद्व्योपचितमुच्यते । यद्वा-अवधेन-गर्हितेन पापेन सह यद् वर्तते तत्सावधं, न सावयं प्राणिवधादिप्रवृत्तिर्यस्मात् भवति, तद् असावद्यमुच्यते । तथाचाहारकं न कदाचिद् हिंसादौ प्रवर्तते । न वा-हिंसादिप्रवृत्तित उत्पद्यते तस्मात्-विशुद्धमसावधमाहारकं भवति । एवमाहारकशरीरमव्याघाति भबति । व्याहन्तुं शीलमस्य तव्याघाती, न व्याघाति-अव्याघाति, आहारकशरीरं न किञ्चिद् व्याहन्ति-विनाशयति, न वा-तद्अन्येन केनचित् पदार्थेन व्याहन्तुं शक्यते । तदेवंविधमाहारकं चतुर्दशपूर्वघरएव लब्धिप्रत्ययमेवोत्पादयति । तत्त्वार्थनियुक्ति-आहारक शरीर के भेद-प्रभेद नहीं हैं। वह एक ही प्रकार का होता है, प्रमत्त संयत को ही होता है और उसका समय अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। आहारक शरीर शुभ द्रव्यों से अर्थात् प्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले द्रव्यों से बनता है और शुभ परिणाम वाला अर्थात् समचतुरस्र संस्थान वाला होता है। इस प्रकार आहारक शरीर विशुद्ध पुद्गलों से उपचित होने से निरवद्य होता है अर्थात् निरवद्य आहार---पानी से उसका निर्माण होता है । आहारक शरीर विशुद्ध द्रव्यों से बनता है, इसका अर्थ यह है कि वह स्वच्छ स्फटिकमणि के खण्ड के समान समस्त पदार्थों के प्रतिबिम्ब का आधारभूत होता है । अथवा वह गर्हित-पापमय नहीं होता-उससे प्राणिवध आदि पापों में प्रवृत्ति नहीं होती, अतएव वह निरवद्य होता है। आहारक शरीर न तो हिंसा आदि पापकर्मों में कभी प्रवृत्त होता है और न हिंसा आदि करने से उत्पन्न होता है,, इस कारण वह विशुद्ध-असावध होता है । आहारक शरीर अव्याघाती भी होता है । अर्थात् न तो वह किसी को रुकावट उत्पन्न करता है और न कोई दूसरी वस्तु उसमें रुकावट उत्पन्न कर सकती है । यह शरीर चौदह पूर्वो के धारक मुनि को लब्धि के निमित्त से ही प्राप्त होता हैं। चौदह पूर्वधारी दो प्रकार के होते हैं—भिन्नाक्षर और अभिन्नाक्षर । जिस चौदह पूर्वधारी को श्रुतज्ञान का एक-एक अक्षर असंदिग्ध होता है अर्थात् जिसे किसी प्रकार का संशय नहीं होता वह भिन्नाक्षर कहलाता है । भिन्नाक्षर को श्रुतज्ञान संबन्धी संशय निवृत्त શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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