SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ तत्त्वार्थसूत्रे यथा-जलचराणां मत्स्यादीनां जलद्रव्यापेक्षा गति रुपजायते, लोकान्तादन्यत्र तु-सर्वस्मिस् लोके न तयोः प्रतिघातः क्वापि सम्भवति, तयोर्मूर्तत्वेऽपि अतिसूक्ष्मत्वात् सर्ववर्त्मसु गतेः प्रतिघातः सदाचारमुनेरिव सम्भवति, ते द्वेअपि तैजसकार्मणशरीरे न किञ्चित् प्रतिहतस्नेहपर्वतजलधिवलयद्वीपपातालनरकविमानप्रस्तराणामपि भेदने विदघति वन्नवदक्षतस्वरूपे सति न कदाचिदपि कुण्ठतामासादयतः । यथाहि -- परिस्फुरन्मूर्तयोऽपि तेजोऽवयवाः लोहपिण्डान्तः प्रविशन्तः कयापि युक्त्या निवारयितुं न पार्यन्ते, तन्निवारणाय च जलकणाः समाहृता भवन्ति । सूक्ष्मत्वात् एवमेव-- तैजस-कार्मणशरीरे राजवल्लभपुरुषविशेषवत सर्वत्राप्रतिहतप्रवेशनिर्गमे अवगन्तव्ये । उक्तञ्च राजप्रश्नीयसूत्रे-६६-सूत्रे "अप्पडिहयगई" अप्रतिहतगतिः । किञ्चतैजसकार्मणशरीराभ्यां न जातुचित् संसारीजीवो विरहितो भवति संसारिभिः सह तयोरनादिसम्बन्धात् । को लोकान्त में तैजस और कार्मण शरीर प्रतिहत हो जाते हैं, अर्थात् जहाँ लोक का अन्त होता है वहाँ तैजस-कार्मण शरीर की गति का भी अन्त हो जाता । लोक के बाहर गति का कारण धर्मद्रव्य और स्थिति का कारण अधर्मद्रव्य नहीं होता । धर्मद्रव्य के निमित्त से ही जीवों और पुद्गलों की गति होती है। अतएव जहाँ धर्मद्रव्य का अभाव है वहाँ गति का भी अभाव होता है। जैसे मत्स्य आदि जलचरों की गति जल की सहायता से होती है, उसी प्रकार समस्त जीवों और पुद्गलों की गति धर्मद्रव्य की सहायता से ही होती है। लोकान्त को छोड़ कर सम्पूर्ण लोक में कहीं भी उनका प्रतिघात नहीं होता अर्थात् उनकी गति में रुकावट नहीं आती । यद्यपि ये दोनों शरीर भी मूर्स हैं, फिर भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अप्रतिहत हैं । चाहे पर्वत हो या समुद्र, वलय, द्वीप, पाताल, नरक अथवा विमान का पाथड़ा हो, उसे भेद कर वे सर्वत्र अप्रतिहत गति होते हैं । उनका स्वरूप वज्र के समान अक्षत है। जैसे चम चमाते हुए तेज के अवयव लोहे के पिण्ड के भीतर प्रवेश कर जाते हैं और किसी भी युक्ति से रोके नहीं जा सकते, क्योंकि वे सूक्ष्म होते हैं, उसी प्रकार तैजस और कार्मण शरीर भी राजा के प्रिय पुरुष के समान सर्वत्र प्रवेश करते और निकलते हैं । राजप्रश्नीय सूत्र के, ६६ वें सूत्र में उन्हें 'अप्पडिहयगई' अर्थात् बिना किसी रुकावट के गति करने वाले कहा है। तैजस और कार्मण शरीर से संसारी जीव कदापि रहित नहीं होता । समस्त संसारी जीबों के साथ उनका संबन्ध अनादि काल से है। जैसे सुवर्ण और पाषाण का संयोग अनादि है तथा आकाश और पृथ्वी आदि का संयोग अनादिकालीन है, उसी प्रकार जीव के साथ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy