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________________ दीपिका नियुक्तिश्च अ० १ सू. ३० जीवानां शरीरमेदकथनम् १२७ योग्योऽनन्ताणुकस्कन्धोऽन्यैरनन्तपरमाणु प्रचितस्कन्धैर न न्तैर्यदा गुणितो भवति, तदा - तैजसशरीरग्रहणयोग्यो भवति । एवम्-तैजसशरीरयोग्योऽनन्ताणुकस्कन्धोऽन्यैरनन्ताणुकैः स्कन्धैर्यदा गुणितो भवति, तदा–कार्मणशरीरग्रहणयोग्यः सम्पद्यते तथाचोक्तम्प्रज्ञापनायां २१ एकविंशतितमे शरीरपदे - " सव्वत्थोवा आहारगसरीरा दव्वट्टयाए वेउव्वियसरीरा दव्द्वयाए असंखेज्जगुणा, ओरालिसरीरा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा तेयाकम्मगसरीरा दो वि तुल्ला दव्वट्टयाए, अनंतगुणा पदेस याए सव्वत्थोवा आहारगसरीरा पदेसट्टयाए, वेउव्वियसरीरा पदेस - या असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरा पदेसट्टयाए असंखोज्जगुणा, तेयगसरीरा पदेसअनंतगुणा, कम्मगसरीरा पदेसट्टयाए अनंतगुणा" इत्यादि । छाया - सर्वस्तोकानि आहारकशरीराणि द्रव्यार्थतया, वैक्रियशरीराणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि, औदारिकशरीराणि द्रव्यार्थतया - असंख्येयगुणानि, तैजसकार्मणशरीरे द्वे अपितु द्रव्यार्थतया - अनन्तगुणे प्रदेशार्थतया, सर्वस्तोकानि आहारकशरीराणि प्रदेशार्थतया, वैकियशरीराणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि, औदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि, तैजसशरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि, कार्मणरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणा । किश्च — अन्यशरीरेभ्य स्तैजसकार्मणशरीरयोः अपरोऽयं विशेषः यत - तैजसकार्मणशरीरे लोकान्तं विहाय सर्वत्राऽप्रतिहते भवतः । लोकान्ते तु ते अपि प्रतिहते भवतः । अयमाशय जीवाजीवाधारक्षेत्रं तावद् लोकपदेन व्यपदिश्यते, तस्य लोकस्याऽन्तोऽवसानं लोकान्त उच्यते, तस्मिन्— लोकान्ते हि - तैजस - कार्मणशरीरे प्रतिहन्येते, तत्र - गतिस्थितिहेतुधर्माधर्मद्रव्याभावात्, तदुपग्रहाद्धि जीवानां पुगलानां च गतिः सञ्जायते । ताणुक स्कंध जब अन्य अनन्त अनन्त प्रदेशों वाले स्कंधों से गुणित किया जाय, तब वह तैजस शरीर के लिए ग्रहण करने योग्य होता है । इसी प्रकार तैजस शरीर के योग्य अनन्ताणुक स्कंध अन्य अनन्ताणुक स्कंधों से गुणित किया जाय तब कार्मणशरीर के लिए ग्रहण करने योग्य होता है । प्रज्ञापनासूत्र के शरीर पद के इक्कीसवें २१ पद में कहा है द्रव्य की अपेक्षा आहारक शरीर सब से थोड़े हैं, द्रव्य की अपेक्षा वैक्रिय शरीर उनसे असंख्यात गुणा अधिक हैं, द्रव्य की अपेक्षा औदारिकशरीर उनसे भी असंख्यात गुणा हैं, तैजस और कार्मणशरीर दोनों द्रव्य की अपेक्षा तुल्य हैं किन्तु अनन्तगुणा हैं, प्रदेशों की अपेक्षा सबसे कम आहारक शरीर हैं, वैक्रिय शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उनसे असंख्यातगुणा हैं, औदारिकशरीर प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातगुणा हैं तैजसशरीर प्रदेशों की अपेक्षा अनन्तगुणा हैं और कार्मणशरीर प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त गुणा हैं, इत्यादि । अन्य शरीरों से तैजस और कार्मण शरीर की एक विशेषता यह भी है कि ये दोनों लोकान्त के सिवाय सर्वत्र अप्रतिहत होते हैं । हाँ, लोक के अन्त में ये भी प्रतिहत हो जाते हैं । आशय यह है कि जीवों और अजीवों का आधारभूत क्षेत्र लोक कहलाता है । लोक के अन्त શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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