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________________ १२६ तत्त्वार्थसूत्रे प्रदेशेभ्यश्चाहारकशरीरप्रदेशा असंख्येयगुणा भवन्ति । प्रवृद्धो देशः प्रदेश इति व्युत्पत्याऽनन्तगुणस्कन्धो यदाऽन्यैरनन्ताणुकैः स्कन्धैरसंख्यातैर्गुणितो भवति तदा-वैकियशरीरग्रहणयोग्यो भवति । एवं वैक्रियशरीरग्रहणयोग्यएकोऽनन्तप्रदेशस्कन्धे यदाऽन्यैरनन्ताणुकस्कन्धैरसंख्यातैर्गुणितो भवति तदाहारकशरीरग्रहणयोग्यतामासादयति किन्तु-तैजस-कार्मणशरीरयो यं नियमो वर्तते, तयोर्नियमान्तर मधुनैवाग्रेऽभिधास्यते । एवञ्च - औदारिकशरीरयोग्यस्कन्धोऽनन्ताणुकोऽपि सर्वस्तोको भवति, उत्तरस्कन्धापेक्षया ऽनन्तसंख्यायाश्चाऽनन्तभेदत्वात् । ___ तस्मात्-औदारिकशरीरयोग्यएकः स्कन्धो यदाऽन्यैरनन्तप्रदेशस्कन्धैरसंख्यातैर्गुणितो भवति, तदा-वैक्रियशरीरयोग्यः सम्पद्यते इति भावः । एवं वैक्रियशरीरयोग्यस्कन्धेभ्य आहारकशरीरयोग्याः स्कन्धा असंख्येयगुणा भवन्ति एतावता-वैक्रिययोग्यः स्कन्धो यदाऽन्यैरनन्तप्रदेशस्कन्धैरसंख्यातैगुणितो भवति । तदा-ऽऽहारकयोग्यो जायते इति फलितम् ।। तैजस-कार्मणशरीर पुनः पूर्वपूर्वापेक्षया-प्रदेशार्थत्वेनाऽनन्तगुणे भवतः । तथाच आहारकात् तैजसं प्रदेशतोऽनन्तगुणम् , तैजसात्कार्मणं प्रदेशतोऽनन्तगुणम् , भवति । एवञ्च-ऽऽहारकशरीरअधिक हैं, और वैक्रिय शरीर के प्रदेशों से आहारक शरीर के प्रदेश असंख्यातगुणे अधिक होते हैं । आहारक की अपेक्षा तैजस के और तैजस की अपेक्षा कार्मणशरीर के प्रदेश अनन्तगुणे अधिक होते हैं । प्रवृद्ध देश प्रदेश कहलाता है, इस व्युत्पत्ति के अनुसार जब अनन्तगुण स्कन्ध अन्य अनन्ताणुक स्कंधों से असंख्यात बार गुणित किया जाय तब वह वैक्रिय शरीर के लिए ग्रहण करने योग्य होता है। इसी प्रकार वैक्रिय शरीर के लिए ग्रहण करने योग्य एक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध जब अन्य अनन्ताणुक स्कंधों से असंख्यात वार गुणित किया जाता है, तब वह आहारकशरीर के लिए ग्रहण करने योग्य होता है। मगर तैजस और काण शरीर के विषय में यह नियम लागू नहीं होता । उनके लिए दूसरा नियम है जो अभी आगे कहा जाएगा । इस प्रकार औदारिक शरीर के योग्य स्कंध अनन्ताणुक होने पर भी उत्तर स्कंधों की अपेक्षा सब से छोटा होता है । क्योंकि अनन्त संख्या के अनन्त भेद हैं । ___ इसका भावार्थ यह है कि औदारिक शरीर के योग्य एक स्कंध जब अन्य अनन्तप्रदेशी स्कंधों के साथ असंख्यात बार गुणित किया जाता है तब वह वैक्रिय शरीर के योग्य बनता है । इसी प्रकार वैक्रिय शरीर के योग्य स्कंधों से आहारकशरीर के योग्य स्कंध असंख्यातगुणा होता है । इसका फलितार्थ यह है कि वैक्रिय शरीर के योग्य स्कंध जब अन्य अनन्तप्रदेशी असंख्यात स्कंधों से गुणित होता है तब वह आहारक शरीर के योग्य होता है। तैजस और कार्मण शरीर पूर्व-पूर्व के शरीर की अपेक्षा प्रदेशों से अनन्त गुणित होते हैं । इस प्रकार आहारकशरीर से तैजस में अनन्तगुणा प्रदेश हैं और तैजस की अपेक्षा कार्मण शरीर अनन्तगुणित प्रदेशों वाला है। अभिप्राय यह हुआ कि आहारक शरीर के योग्य अन શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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