SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. १ सू. २५ भवान्तरमार्गे वर्तमानजीवानां योगनिरूपणम् ९७ शरीरं कर्मेत्युच्यते । योगो मनोवाक्कायवर्गणाहेतुकआत्मप्रदेशपरिप्पन्द उच्यते तथाच- विग्रहगतौ कार्मणशरीरकृतो योगो भवति । तेन कर्मादानं देशान्तरसंक्रमश्च भवति ।। यदा खल्लु आत्मा एक शरीरं परित्यज्य उत्तरं शरीरं प्रतिगच्छति, तदा--कार्मणशरीरेण सह योगः सङ्गतिर्भवति । तथाच-कार्मणशरीराधारेण जीवो भवान्तरं गच्छतीति फलितम् । परमार्थतस्तु-भवान्तरगमनमार्गस्थितस्य विग्रहगतिसमापन्नस्य जीवस्याऽन्तर्गतौ कार्मणशरीरयोगो भवति । अन्तर्गतेरन्यत्र तु -आगमोक्तानुसारं कायवाङ्मनोयोगो भवतीति बोध्यम् ॥२५॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व प्रतिविशिष्टानामेव भवस्थानां मनोयोगनियमः प्रतिपादितः । सम्प्रति अन्तर्गतौ वर्तमानानां प्राणिनां कतमो योगः स्यादिति प्रतिपादयितुमाह-कम्मजोगा विगहगई-इति कर्मयोगा-कर्मणो योगः कार्मणशरीरकृता चेष्टा यस्यां सा कर्मयोगा जीवस्य विग्रहगतिः विग्र हेण-वक्रत्वेन युक्ता गतिविग्रहगतिः, अश्वरथवत् विग्रहप्रधाना वा गतिविग्रहगति भवति । विग्रहगति समापन्नस्य भवान्तरगमनमार्गस्थितस्य जीवस्य कर्मकृत एव योगो भवति, अन्तर्गतौ कार्मणशरीरयोगो भवति अन्तर्गतेरन्यत्र तु-आगमे यथाभिहितः कायवाङ्मनो योगो भवतीत्यर्थः । तथाच--नारकगर्भव्युत्क्रान्तिक तिर्यग्मनुष्यदेवानां त्रयोऽपि योगः। संमूर्च्छनजन्मशालिनाम्-तिर्यङ्मनुष्याणां कायवागयोगावेव भवतः यद्वा-अन्तर्गतेरन्यत्र तत्तद्भवस्थितो यथायोगं पञ्चदशभेदः कायादियोगो भवति । तत्र-मनोयोगश्चतुर्विधः-- वचनवर्गणा के निमित्त से होने वाला आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन अर्थात् हलन–चलन योग कहलाता है । इस प्रकार विग्रह गति में कार्मणकाययोग होता है । उसी से नवीन कर्मों का ग्रहण और देशान्तर में गमन होता है। जब आत्मा एक शरीर को त्याग कर अगला शरीर धारण करने के लिए गमन करता है, उस समय वह कार्मण शरीर के साथ होता है। इसका फलितार्थ यह है कि जीव कार्मण शरीर के आधार से भवान्तर में गमन करता है । इसका परमार्थ यह है कि भवान्तर के गमन के मार्ग में स्थित और विग्रहगति को प्राप्त जीव की अन्तराल गति में कार्मण काययोग होता है । अन्तराल गति के अतिरिक्त अन्य समय में आगम के कथनानुसार काययोग, वचनयोग और मनोयोग तीनों भी हो सकते है, ऐसा समझ लेना चाहिए ॥२५॥ तत्त्वार्थनियुक्ति -पहले खास-खास संसारी जीवों के ही मनोयोग का नियम प्रतिपादन किया गया है, किन्तु अन्तर्गति में जीवों के कौन सा योग होता है ? यह प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं---विग्रहगति कर्मयोग अर्थात् कार्माण काययोग से होती है । जिसमें कार्मण शरीर के द्वारा चेष्टा हो वह गति 'कर्मयोग कहलाती है । विग्रहगति कर्मयोग है । १३ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy