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________________ ९८ तत्वार्थसूत्रे सत्यः असत्यः - सत्यासत्यः - असत्यामृषश्च । एवम् वाग्योगोऽपि चतुर्विधो भवति । काययोगश्च सप्तविधः-औदारिकः - औदारिक मिश्रः - वैक्रियः वैकियमिश्रः - आहारकः - आहारकमिश्रः कार्मणश्चेति । तैजसं च सयोगिवृत्तित्वात् कार्मणात् न भिन्नम् एकमेवेदमिति, अतः पञ्चधा योगः, न तु षोडशधा । तथाहि संज्ञिमिथ्यादृष्टेरारब्धो यावत् सयोगकेवली तावद् - आद्यतुरीयौ मनोयोगौ प्राप्येते । एतेष्वेव स्थानेषु सत्यवाग्योगोऽपि । तुर्थस्तु वाग्योगो द्वीन्द्रियमिध्यादृष्टेरारब्धो यावत् सयोगिकेवली तावत्समस्ति । द्वितीय-तृतीय वाग्योगौ संज्ञिमिथ्यादृष्टेरारब्धौ यावत् क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थस्तावत् प्राप्यते । एवं मनोयोगावपि द्वितीय-तृतीयौ, ऋजुगत्यां यावद्भवान्तरसम्प्राप्तिर्भवति — तावद् अपान्तराले भवान्तरगमनमार्गे यथासम्भवमौदारिकवैक्रिय काययोगौ भवतः । वक्रायान्तु - विग्रह अर्थात् वक्रता या मोड़ से मुक्त जो गति हो वह विग्रहगति अथवा घोड़ों के रथ के समान विग्रह की प्रधानता वालो गति विग्रहगति कहलाती है । जो जीव विग्रहगति को प्राप्त है भवान्तर गमन के मार्ग में स्थित है, उस जीव को कार्मणकाययोग ही होता है । अन्य समय • आगम के अनुसार काययोग, वचनयोग और मनोयोग तीनों योग हो सकते हैं । इस प्रकार नारक, गर्भज तिर्यंच और मनुष्य तथा जीवों में तीनो योग पाये जाते हैं । सम्मूर्छिम जन्म वाले तिर्यचों और मनुष्यों में काययोग और वचनयोग ही होते हैं । अथवा अन्तरालगति के सिवाय दूसरे समय में भिन्न भिन्न पर्यायों में स्थित देवों के यथायोग्य काययोग आदि पन्द्रह ही योग होते हैं । उनमें से मनोयोग चार प्रकार का है - ( १ ) सत्य मनोयोग ( २ ) असत्य मनोयोग (३) सत्यासत्य (मिश्र) मनोयोग और ( ४ ) असत्यतामृषा (व्यवहार) मनोयोग | वचनयोग भी इसी प्रकार चार प्रकार का है । (१) औदारिक (२) औदारिक मिश्र (३) वैक्रिय ( ४ ) वैक्रियमिश्र (५)आहारक (६) आहार मिश्र (७) कार्मणयोग तैजस, कार्मण के साथ ही होता है अतः कार्मेण से भिन्न नहीं है, अतः पन्द्रह ही प्रकार का योग है, सोलह प्रकार का नहीं । सत्यमनोयोग और व्यवहार मनोयोग संज्ञी मिध्यादृष्टि से लेकर सयोग केवली पर्यन्त होता है । सत्य वचनयोग भी इन्हीं स्थानों में पाया जाता है। चौथा वचनयोग द्वीन्द्रिय से लेकर सयोग केवली पर्यन्त रहता है । दूसरा और तीसरा वचनयोग संज्ञी मिध्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ पर्यन्त पाया जाता है । इसी प्रकार दूसरा और तीसरा काययोग ही भवान्तर की प्राप्ति राल में भवान्तर गमन के मार्ग में यथासंभव औदारिक एवं वैक्रिय શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧ पर्यन्त होता है । अन्तकाययोग होते हैं । वक्र
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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