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________________ तत्त्वार्थसूत्रे wwwura ... विग्रह उच्यते । उक्तञ्च-"उज्जुसेढीपडिवन्ने अफुसमाणगई उड्ढं एक्कसमएणं अविग्गहेणं गंता सागरोउवत्ते सिज्झहिइ-इति ।। औपपातिके सिद्धाधिकारे ९२ सूत्रे अस्मत्कृतपीयूषवर्षिणीटीकायाम् ऋजुश्रेणिप्रतिपन्नः अस्पृशद्गतिः ऊर्ध्वम् एकसमयेनाऽविहेण गन्ता साकारोपयुक्तः सेत्स्यति इति । यथा-संसारिणां चतस्रो गतयः संभाविताः तथा-परमाण्वादीनां पुद्गलानामपि विस्रसा प्रयोगाभ्यां संभावनीयाः । अन्तर्गतौ-अयं कालनियमो-विग्रहनियमश्च प्रतिपादितः, भवस्थाना मौदारिकादिशरीरिणां च प्रयोगपरिणामबशाद् विग्रहवती-अविग्रहवती च गतिर्भवति । किन्तुतत्र नियमो नास्ति, औदारिकादिशरोरिषु विग्रहा नैव नियम्यन्ते, अल्पा वा-बहवो वा यथोक्तविग्रहेभ्य इति भावः ॥२४॥ मूलसूत्रम्-कम्म जोगा विग्गहगई-,, ॥२५॥ छाया कर्मयोगा विग्रहगतिः-, ॥ २५ ॥ तत्त्वार्थदीपिका पूर्वं तावत् संसारिणां प्रति विशिष्टानामेव भवावस्थितानां मनोयोगनियमः प्ररूपितः । सम्प्रति-भवान्तरगमनमार्गेऽन्तर्गतौ वर्तमानानां जीवानां कतमो योगो भवेदिति प्ररूपयितुमाह-कम्मजोगाःविग्गहगई" इति कर्मयोगा-कर्मणो योगः कार्मणशरीरकृताचेष्टा यस्यां सा कर्म योगा जीवस्य विग्रहगतिः विग्रहेण-वक्रत्वेन युक्ता गतिर्विग्रहगतिः सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मणएक ही समय की होती है । औपपातिकसूत्र के सिद्धप्रकरण में, ९२ वें सूत्र की हमारे द्वारा की हुई पीयूषवर्षिणी टीका में कहा है-ऋजुगति को प्राप्त, अफुसमाण गति वाला जीव एक समय के अविग्रह से जाकर साकार उपयोग से युक्त होकर सिद्ध होगा। जैसे संसारी जीवों की चार गतियाँ संभवित हैं, उसी प्रकार परमाणु आदि पुद्गलों की भी विस्रसा और प्रयोग के द्वारा समझ लेनी चाहिए। काल का और विग्रह का यह नियम अन्तराल गति के लिए बतलाया गया है । भवस्थ और औदारिक शरीर वाले जीवों की प्रयोग-परिणाम के वश से विग्रह वाली और बिना विग्रह की दोनों प्रकार की गति होती है। उसके लिए कोई नियम नहीं है । औदारिक आदि शरीरधारियों के लिए विग्रहों का नियम नहीं है--वे थोड़े भी होते हैं और बहुत भी हो सकते हैं ॥ २४ ॥ सूत्र--"कम्मजोगा विग्गहगई ॥२५॥ मूलसूत्रार्थ-विग्रहगति कार्मणकाययोग से होती है ॥२५॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले विशिष्ट संसारी जीवों के ही मनोयोग का नियम बतलाया गया है। अब भवान्तरगमन के मार्ग में अन्तर्गति में वर्तमान जीवों के कौन सा योग होता है, यह बतलाने के लिए कहते हैं - ___जीव की विग्रहगति कर्मयोग से अर्थात् कार्मणशरीर के निमित्त से होती है। जो गति विग्रह अर्थात् वक्रता से युक्त हो वह विग्रहगति कहलाती है । जो शरीर समस्त शरीरों की उत्पत्ति में बीज के समान कारण हो, वह कार्मण शरीर कहलाता है मनोवर्गणा, कायवर्गणा और શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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