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________________ ८६ ता एव विभिद्यनकदाचिदपि प्रयान्तीति भावः । एवञ्च - जीवपुद्गलावगाहलक्षणस्याssकाशस्य परमाणुरूपा मूर्त प्रदेशानां प्रदर्घाश्रेणिरसंख्यातप्रदेशा भवति जीवानां गमने, पुद्गलानां गमने तु संख्यातप्रदेशापि श्रेणिर्भवति । तामेवं विधां श्रेणिमनुपत्यगमनं सम्पद्यते, आकाशप्रदेशानां याश्रेणिस्तामनुश्रित्य उपपद्यते गतिजीवानां - पुद्गलानां चेति । तथाचाssकाशश्रेण्यभेदवर्त्तिनी देशान्तरप्राप्तिलक्षणागतिः स्वयमेव समासादितगतिपरिणामाज्जन्तोर्गतिहेतुसकललोकव्यापिधर्म - द्रव्यापेक्षया प्रादुर्भवति । भवान्तरसंक्रमणाभिमुखो जीवः कर्मणो मन्दक्रियावत्वात् येषामेवा काशप्रदेशानामवष्टम्भं कृत्वा शरीरत्यागं करोति तानेवाऽभिनन्दन् देशान्तरमूर्ध्वमदस्तिर्यग्वा गच्छति । धर्मास्तिकायाभावाच्च परतो लोकपर्यन्ते एव व्यवतिष्ठते, लोकनिष्कुटोपपातक्षेत्रवशाच्च भवान्तरप्राप्तो नूनमेव जीवधर्मादवकां गतिं प्रतिपद्यते । पुद्गलानामपि - परप्रयोगनिरपेक्षाणां स्वाभाविकीगतिरनुश्रेणिरूपा भवति यथा परमाणोः प्राच्याद् लोकान्तात् प्रतीच्य लोकान्तमेकेन समयेन प्राप्तिर्भवति वस्तुगतिमनुरुध्य सूत्रेण प्रतिपादितम् । उक्तंच-व्याख्याप्रज्ञप्तौ २५ शतके ३ – उदेशके - “परमाणुपोग्गलाणं भंते! किं अणुसेई पवत्त-विसेढीगई पवत्तइ - ? गोयमा ! अणुसेढीगई पवत्तइ नोविसेढीगइ पवतइ । दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं अणुसेढीगई पवतs, विसेढीगई पवत्त एवं चेव, एवं जाव अनंत एसियाणं खंधाणं नेरइयाणं भंते ! किं अणुसेढीगई पवत्तइ - विसेढीईपवत्त एवं चैव एवंजाववेमाणियाणं" । तत्त्वार्थसूत्रे जिनमें पूरण और गलत अर्थात् मिलना और बिछुड़ना पाया जाय उन्हें पुद्गल कहते हैं । उन पुद्गलों की तथा संसारि जीवों की ऊँची नीची अथवा तिछ जो गति होती है, वह आकाश के प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार होती है । पुद्गलो की स्वभाव लम्बी होती हैं । इसी प्रकार ऊपर-नीचे भी धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय पर्यन्त जो श्रेणियाँ हैं, उन श्रेणियों में ही गति होती है । उनको लांघ कर --- भेदन करके कदापि गमन नहीं करते । इस प्रकार जीवों और पुदगलों के अवगाह रूप आकाश के परमाणुरूप अमूर्त्त प्रदेशों की लम्बी श्रेणी असंख्यात प्रदेशों की होती है, किन्तु वह जीवों के गमन में ही होती है । पुद्गलों के गमन में तो संख्यात प्रदेना वाली श्रेणी भी होती है । इस प्रकार की श्रेणी में ही गमन होता है । आकाश के प्रदेशों की जो श्रेणी है, उसके अनुसार ही जीवों और पुद्गलों की गति हो सकती है । स्वतः गति परिणाम को प्राप्त जीव की देशान्तर उल्लंघन न करके, गति के कारणभूत एवं समस्त लोक में है । परभव में जाने के लिए अभिमुख हुआ जीव मनक्रिया શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧ प्राप्ति रूप गति आकाश श्रेणी को व्याप्त धर्मद्रव्य के निमित्त से होती वाला होने से जिन आकाशप्रदेशों
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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