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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ विग्रहाविग्रहयोनिरूपणम् ८७ परमाणुपुद्गलानां भदन्त--! किमनुश्रेणिर्गतिः प्रवर्तते, विश्रेणिर्गतिः प्रवर्तते ? गौतम-! अनुश्रेणिर्गतिः प्रवर्तते नो विश्रेणिर्गतिर्गतिः प्रवर्तते । द्विप्रदेशिकानां भदन्त- ! स्कन्धानामनुश्रेणिर्गतिः प्रवर्तते, विश्रेणिर्गतिः प्रवर्तते एवं चैव एवं यावद् अनन्तप्रदेशिकानां स्कन्धानाम् । नैरयिकाणां भदन्त-- ! किमनुश्रेणिर्गतिः प्रवर्तते विश्रेणिर्गतिः प्रवर्तते एवमेव एवं यावद् वैमानिकानाम् इति ॥२३॥ मूलसूत्रम्-“जीवगई यदुविहा विग्गहा-अविग्गहाय" ॥२४॥ छाया “जीवगतिश्च द्विविधा विग्रहा-अविग्रहाश्च" ॥२४॥ तत्त्वार्थदीपिका :-पूर्वं तावत् जीवानां पुद्गलानां च गतिः प्ररूपिता, तत्र-जीवानां भवान्तरप्रापिणी, पुद्गलानान्तु-देशान्तरप्रापिणी खलु सा गतिर्भवतीति बोध्यम् तत्र–किं जीवःपुद्गलो वा ऋज्वेव गत्वा विरमति-? आहोस्वित् वक्रं गत्वापि पुनरुपजायते तिष्ठति वा-? इति जिज्ञाकी सहायता लेकर शरीर का त्याग करता है, उनका भेदन न करता हुआ ऊपर, नीचे या ति, देशान्तर में गमन करता है। उसकी अनुश्रेणी गति होती है। आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोक के पर्यन्त भाग में गति एक जाती है। लोक के निष्कर-पर्वत के सामान निश्चल उपपातन तेत्र के नश से जीव धर्मास्तिकाय की सहायता से वक्र गति करता है। पुद्गलों की भी पर प्रेरणा के बिना जो स्वाभाविक गति होती है, वह अनुश्रेणि रूप ही होती है। जैसे परमाणु पूर्वदिशा के लोकान्त से पश्चिम दिशा के लोकान्त तक एक समय में प्राप्त होता है । वस्तुगति के अनुरोध से सूत्र द्वारा प्रतिपादन किया गया है। पर की प्रेरणा की अपेक्षा से पुद्गलों की भी अनुश्रेणी रूप भी गति होती है । व्याख्याप्रज्ञति के २५ वें शतक में, तीसरे उद्देशक में कहा है-- प्रश्व --भगवन् ! परमाणुपुद्गलों की गति अनुश्रेणि-श्रेणी के अनुसार होती है । उत्तर--गौतम ! अनुश्रेणि गति होती है, विश्रेणि गति नहीं होती है । प्रश्न—भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कंधों की अनुश्रेणि गति होती है या विश्रेणि गति होती है ? उत्तर-इस प्रश्न का उत्तर पूर्ववत् है । इसी प्रकार अनन्त प्रदेशी स्कंधों तक कह लेना चाहिए । प्रश्न-भगवन् ! नारक जीवों की गति अनुश्रेणि होती है या विश्रेणि होती है। उत्तर इसका उत्तर भी पूर्ववत् ही है । इसी प्रकार वैमानिक देवों तक समझ लेना चाहिए ॥२३॥ __सूत्र ॥ जीवा गई या दुविहा इत्यादि । मूलसूत्रार्थ- जीव की गति दो प्रकार की है—सविग्रह और अविग्रह ॥२४॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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