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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ पुद्गलजीवयोर्गतिनिरूपणम् ८५ पुद्गलजीवगतिरेकविधा प्रज्ञप्ताः अनुश्रेणि । तत्र-गमनंगतिः देशान्तरप्राप्तिः पुद्गलानाम् परमाणुरूपपुद्गलानां ध्वादि प्रदेशिकपुद्गलस्कन्धानां जीवानां च देशान्तरप्राप्तिलक्षणा गतिरेकविधा । प्रज्ञप्ता, अनुश्रेणिरूपा--तत्र-परमाणुपुद्गलाना धादिप्रदेशिकपुद्गलस्कन्धानां चाऽनुश्रेणिरूपागतिः । जीवानामपितथैव । तत्र श्रेणिस्तावत् आकाशप्रदेशपंक्तिः । स्वशरीरावगाहप्रमाणा, प्रदेशाश्चाऽमूर्ताः क्षेत्रपरमाणवोऽत्यन्तसूक्ष्माः नैरन्तर्यभाजो भवन्ति, सा चाऽऽकाशप्रदेशपंक्तिरूपा श्रेणिजीवगत्यपेक्षयाऽसंख्येयप्रदेशा भवन्ति । पुद्गलगत्यपेक्षया पुनमौक्तिकहारलतेव एकैकाकाशप्रदेशरचनाहितस्वरूपा पिग्रहीतव्या । परमाणुपुद्गलानां तावत्यामेवश्रेण्या व्यवस्थानं भवति । द्विप्रदेशिकादिपुद्गलानान्तु-तावत्यां तदधिकायां च श्रेण्या व्यवस्थानं भवति, इत्येवं-अप्रदेशिकस्कन्धपर्यवसानं पुद्गलद्रव्यमुपयुज्य वक्तव्यम् । श्रेणिमनुगताऽनुश्रेणिः तथाविध श्रेण्यनुसारिणी गतिरित्यर्थः । तत्र-पूरणाद् गलनाच्च पुद्गला व्यपदिश्यन्ते, तेषां पुद्गलानां जीवानां च संसारिणां संसरणधर्मवतां सर्वाऽपि ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्वादेशान्तरप्राप्तिलक्षणागतिराकाशप्रदेशाऽनुश्रेणिरूपा भवति ॥ पूर्वापरायता आकाशप्रदेशश्रेणयो दक्षिणोत्तरायताश्चाऽन्याः श्रेणयः एवमूर्ध्वमधश्च धर्माधर्मद्रव्यद्वयावधिका याः श्रेणयस्तास्वेवश्रेणिषुगतिसद्भावात् । पुद्गलों और जीवों की गति एक प्रकार की है -अनुश्रेणि गमन करना गति कहलाता है और गमन का अर्थ है एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचना । परमाणपुद्गलों को, द्विप्रदेशी आदि स्कंधों की और जीवों की गति एक प्रकार की होती है-अनुश्रेणिरूप इनमें से परमाणुपुद्गलों और द्विप्रदेशी आदि स्कंधों की अनुश्रेणि गति ही होती है। जीवों की गति एक प्रकार की होती है-अनुश्रेणि रूप अपने शरीर की अवगाहना जितनी आकाश के प्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। अमूर्त क्षेत्र के परमाणु प्रदेश कहलाते हैं । वे अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं और निरन्तर व्याप्त रहते हैं । आकाश के प्रदेशों की पंक्ति अर्थात् श्रेणी जी वगति की अपेक्षा से असंख्यात प्रदेशों वाली होती है । पुद्गलगति की अपेक्षा से मोतियों के हार के समान एक-एक आकाशप्रदेश की रचना वाली भी समझ लेना चाहिए। परमाणुपुद्गलों का उतनी ही श्रेणी में अवस्थान होता है, किन्तु द्विप्रदेशी आदि पुद्गलों का उतनी और उससे अधिक श्रेणी में अवस्थान होता है । इस प्रकार अनन्तधेविक स्कंध पर्यन्त पुद्गलद्रव्य के विषय में कह लेना चाहिए। श्रेणी के अनुसार जो गति हो वह अनुश्रेणि कहलाती है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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