SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थ सूत्रे तथाच-- परमाणुरूपपुद्गलानां इत्यादि प्रदेशिकपुद्गलस्कन्धानां जीवानां च देशान्तरप्राप्तिलक्षणागतिः त्रिधा वर्तते अनुश्रेणिरूपा । तत्र परमाणुपुद्गलानां व्यादिप्रदेशिकपुद्गलस्कन्धानां चाऽनुश्रेणि रूपागतिर्भवति । जीवानामपि तथैव अनुश्रेणिरूपैव । तत्र-श्रेणिस्तावद् लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यकचक्रम सन्निविष्टानामाकाशप्रदेशानां पंक्तिःस्वशरीरावगाहप्रमाणाबोध्या । तथाविधश्रेणिमनुगता- अनुश्रेणिः श्रेणेरानुपूर्व्यायाजीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवति । साऽनुश्रेणिर्गतिरुच्यते ॥ ८४ तत्राऽनुश्रेणिरूपागतिः पुद्गलानां जीवानां च भवति, जीवानामेव स्वभावतो भवति, तत्रापि - जीवानां संसारिणां मरणकाले - भवान्तरसंक्रमे मुक्तानां चोर्ध्वगमनकाले अनुश्रेण्यैव गतिर्भवति - पुद्गलानामपिपरप्रयोगनिरपेक्षाणां स्वाभाविकीगतिरनुश्रेणिरूपैव भवति तथाच - परप्रयोगापेक्षयापुद्गलानामनुश्रेणिरूपा - गतिर्भवति, परप्रयोगानपेक्षया तु अनुश्रेणिरूपैव गतिर्भवति पुगलाना - मिति वस्तुस्थितिः ॥ २३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति :-- - पूर्वं जीवानां स्वरूपं निरूपितम् सम्प्रति- येषां जीवानां भवान्तरप्रापिणीगतिर्भबति सा किं यथा कथञ्चिद् भवति ? आहोस्विदस्ति तत्र कश्चिन्नियमः इति शङ्कायां प्रथमं गतिं प्ररूपयति — “पोग्गलजीवगई दुविहा अणुसेढीय" इति । लिए पहले गति का स्वरूप कहते हैं -- पुद्गलो और जीवों की गति अर्थात् एक जगह से दूसरी जगह पहुँच दो प्रकार की होती है-- अनुश्रेणि और विश्रेणि । परमाणुप्रगलों की द्विप्रदेशी आदि स्कंधों की ओर जीवों की देशान्तरप्राप्ति रूप गति एक प्रकार की होती है - अनुश्रेणिरूप परमाणुपुद्गलों की साथ द्विप्रदेशी आदि स्कंधों की गति ही होती है । 1 जीवों की भी अनुश्रेणि ही होती है । लोक के मध्यभाग से लगाकर ऊपर नीचे और ति अनुक्रम से रहे हुए आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणि कहते हैं । इस श्रेणि के अनुसार जीवों और पुद्गलों की जो गति होती है वह अनुश्रेणि गति कहलाती है । इनमें से अनुश्रेणि गति पुद्गलों और जीवों की होती है। पुद्गलों की इसमें भी जीव जब मरण करके दूसरे भव में जाता है और मुक्त जीव जब ऊर्ध्वगमन करते हैं तब उनकी अनुश्रेगिति होती है । परप्रयोग के बिना पुद्गलों की भी स्वभाविक गति श्रेणी के अनुसार ही होती है; परप्रयोग से अर्थात् बाहरी दबाव से प्रद्गलों की अनुश्रेणि गति होती है । यह वस्तुस्थिति है ॥२३॥ तत्वार्थ नियुक्ति —जीवों के स्वरूप का निरूपण पहले किया जा चुका है, अब जीवों की भवान्तरप्रापिणी (परभव में पहुँचाने वाली) जो गति होती है, वह चाहे जैसी हो जाती है अथवा उसका कोई नियम है ? इस प्रकार को शंका होने पर पहले गति का निरूपण करते हैं । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy