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________________ श्रीकल्पसूत्र ॥४५१ ॥ 漢興宮 दुंदुहि धुरीण-ज्युणिणा मणुस्सलोगं सदिगंतं पूरयंतं जलता - णल- डज्झमाण - णिरुवमाण - कालागुरु- पत्ररकुंदुरुकतुरुक - पमुह - धूत्र - दुन्निरूव-मघमघायमाण- गंध विरायमाण- विविह- सुह - चिंधं निच्चालोगं विगयसोगं नाणाविहसरस- के लि- कला - कोऊहल- संलग्ग- सुरवरा-सणा-भिरामं सयल - सुरवर - विमाण- ललामं, अकय-सुकय-दुल्लभयरं कय-मुकय-मुलभयरं पुंडरीगाभिहाणं देवविमाणं पास ||० २६ ॥ १२– देवविमानस्वप्नः छाया - ततः पुनः सा तरुणतरा-रुण - मण्डल - दीप्यमानं, विविध - विशाल - किङ्किणीजाल - शब्दायमानं जाज्वल्यमान -लम्बमान - दिव्य-दामानं, दिव्य - देवर्धि - निधानं प्रतर - निषक्त - मञ्जुल - काञ्चन - महामणिगण - प्रस्फुरण-दलित- गाढान्धकारं प्रलम्बमान-नानामणि- रत्न - रचित - विविध- हारम् अम्बर - विदारण- कार - कल्प- प्रचारं १२- देवविमान का स्वप्न मूल का अर्थ - 'तओ पुण सा तरुणारुण०' इत्यादि । तत्पश्चात् त्रिशला देवीने बारहवें स्वप्न में पुण्डरीक नामक देवविमान को देखा। वह देवविमान मध्याह्नकालीन सूर्य के समान देदीप्यमान था । नाना प्रकार की बड़ी-बड़ी घुघुरुओं के समूह के शब्द से मुखरित हो रहा था । उसमें अतिशय चमकीली सुन्दर मालाएँ लटक रही थीं। वह देवों की दिव्य ऋद्धि का निधान था । पतरों में लगे हुए सुन्दर स्वर्ण और महामणियों के समूह के प्रकाश से सघन अंधकार को नष्ट करने वाला था। उसमें अनेक प्रकार की मणियों तथा रत्नों के बने विविध हार लटक रहे थे। उसकी गति मानो आकाश को चीर देने में समर्थ थी । उसके ૧૨ મું દેવિવમાનનું સ્વપ્ન 'तओ पुण सा तरुणारुण०' इत्याहि त्रिशला राष्ट्रीओ पारभां स्वप्नाभां पुंडरीड नामनु देवविभान लेयु. આ દેવિવમાન, ખરા બપારના પ્રકાશતાં સૂર્યના તેજ જેવું દૈદીપ્યમાન હતું. વિવિધ પ્રકારના ઘુઘરીએના સમૂહ વડે, મેટા અવાજ નીકળી રહ્યો હતા. તેમાં ચકચકાટ મારતી સુ ંદર માળાઓ લટકી રહી હતી. વિમાન, દેવાની દિવ્ય ઋદ્ધિ સમાન ગણાતુ છાપરા ઉપર, સુવર્ણ અને મહામણીએના પ્રકાશથી, ઘાર અધકાર નાશ પામતા હતા. આ વિમાનમાં મણિ-રત્નાના હારી લટકી રહ્યાં હતાં. તેની ગતિ ઘણી વેગવાન હતી. તેના ચારે દ્વારા ઉપર, પાંચવર્ણો રત્ના અને મેતિએના તેરા લટકી શ્રી કલ્પ સૂત્ર : ૦૧ कल्प मञ्जरी टीका देवविमान स्वन वर्णनम् . ।।४५१।।
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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