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________________ श्रीकल्प-स कल्पमञ्जरी टीका ॥४३२॥ टीका-'तो पुण सा घणंधयार०' इत्यादि। ततः पूर्णचन्द्रदर्शनानन्तरं, पुनः सप्तमे स्वप्ने सा त्रिशला सूरं पश्यति, तत्र कीदृशं सूरम् ? इत्याह-घनान्धकार-वार-समवहार-धुरीणं-घनाः निबिडाः ये अन्धकारास्तेषां यो वारः समूहः तस्य यः समवहारः दूरीकरणं तत्र धुरीणम् , तथा-प्रवर-प्रखर-किरण-प्रवरा अतिश्रेष्ठाः प्रखराः अतितीक्ष्णाः किरणाः यस्य तम्, तथा-दशशतकिरण-स्फुरण-प्रकाशित-दिङ्मण्डलं-दशशतकिरणाः सहस्रकिरणाः तेषां स्फुरणेन-विकसेन प्रकाशितं-द्योतितं दिङ्मण्डल दिक्समूहो येन तम्, तथा-- शुकतुण्डा-मन्दपरिणतबिम्ब-गुञ्जाफलतल-प्रफुल्लजपाकुसुम-कुसुम्भ-पलाश-सङ्काश-मण्डलं-शुकतुण्डं-शुकमुखम् अमन्दपरिणतबिम्ब-सुक्वपबिम्बफलं गुञ्जाफलतलं-गुञ्जाफलं प्रसिद्धं,तस्य तलम्-अधोभागः,प्रफुल्लजपाकुसुमं विकसितजपापुष्पम्, कुमुम्भपलाश-कुसुम्भपुष्पपत्रं, तेषां सङ्काश-सदृश-तद्वद्रक्तं मण्डलं यस्य तम्, तथा-ज्योतिराखण्डलं के समूह को फीका कर देने वाले, परम तेजस्वी और अंधकार के पूर को चूर-चूर कर देने वाले मुन्दर सूर्य को देखा ॥मू० २१॥ टीका का अर्थ-'तओ पुण सा घणंधयार०' इत्यादि । पूर्ण चन्द्रमा को देखने के पश्चात् सातवें स्वप्न में त्रिशला देवी ने सूर्य देखा। वह सूर्य कैसा था ? सो कहते हैं सघन अंधकार के समूह को दूर करने में अगुवा था। उसकी किरणे अत्यन्त श्रेष्ठ और तीखी थीं। हजार किरणों के प्रसार से दिशा-समूह को उसने प्रकाशित कर दिया था। वह तोते की चौच के समान, भलीभाति पके हुए विम्बफल के समान तथा गुंजाफल (चिरमी) के तल के समान लाल था, और उसका मंडल खिले हुए जपाकुसुम के समान तथा कुसुंभ के फूल-पत्तों के समान लाल था। वह ज्योतिष्क देवों का इन्द्र था। कमल-वन की शोभा बढ़ाने एवं विकास करने में कुशल था। આવા ગુગોથી ભરપૂર એ સૂર્ય, ત્રિશલા રાણીને, સ્વપ્નમાં દેખાય. (સૂ૦૨૧). टीने अर्थ-तो पुण साधणंधयार०' त्याहि. पूर्ण यन्द्रभानध्या पछी सातभा जामा विशवाय સૂર્યને જોયો. તે સૂર્ય કેવું હતું ? તે કહે છે– ઘાડ અંધકારના સમૂહને દૂર કરવામાં તે આગેવાન હતા, તેનાં કિરણે ઘણા શ્રેષ્ઠ અને તીવ્ર હતાં. હજાર કિરણે પ્રસરાવીને તેણે દિશા-સમૂહને પ્રકાશિત કરી નાખ્યો હતો. તે પિ પટની ચાંચ જે, સારી રીતે પાકેલા બિમ્બફળ જે, તથા ગુજાફળ (ચણોઠી) ના તળ જે લાલ હતું, અને તેનું મંડળ વિકસિત જવાપુષ્પના જેવું તથા કુસુંભનાં ફૂલ-પાન જેવું લાલ હતું. તે જ્યોતિષ્ક દેવને ઈદ્ર હતું. કમળવનની શેભા વધારવામાં અને म सूर्यस्वप्न नमः ॥४३२॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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