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________________ श्रीकल्प सूत्रे ॥४०८॥ कल्पमञ्जरी टीका तमानि-अतिशयपतलानि विशदानि=स्वच्छानि सुकुमाराणि-सुकोमलानि यानि रोमाणि तैर्ममृणा-चिक्कणा द्युतिर्यस्य तम्, तथा-निश्चल-सुबद्ध-मांसल-पिच्छल-सुविभक्त-मञ्जलग-निश्चलानि=स्थिराणि सुबद्धानि=संसतानि मांसलानि-पुष्टानि पिच्छलानि-चिक्कणानि सुविभक्तानि-सम्यग्विभागयुक्तानि मञ्जुलानि-सुन्दराणि अङ्गानि मुखादीनि यस्य तं, तथा-घना-ऽऽवर्त-स्निग्ध-मनोहर-निशित-विशाल-शृङ्ग-घने निबिडे आवर्ते-चतुले स्निग्धे= चिक्कणे मनोहरे-सुन्दरे निशिते तीक्ष्णे विशाले च शृङ्गे यस्य तम्, तथा-शान्तं शान्तियुक्तं दान्तम्-अनुद्धतं, समानशोभमान-विमल-दन्तं-समाना:-तुल्याः शोभमाना:-सुन्दरा विमला:-स्वच्छा दन्ता यस्य तम्, सकलगुण-समन्वितं-सकलाम्म्युग्यत्वधुरन्धरत्वादयो ये वृपभस्य समस्ता गुणास्तैः समन्वितंयुक्तम्, हिम-शैल-संनिभम् हिमाचलसदृशम् सादृश्यं चात्र धवलत्वेनोच्चत्वेन च बोध्यम्: तादृशं वृषभं पश्यति ॥मू०१६॥ ३ सीहसुमिणे मूलम्-तो पुण सा सलिल-बिंदु-कुंदें-दु-तुसार-गोखीर-हार-दगरय-पंडुरतरं रमणिज-पेच्छणिज्ज-थिर-मसिणतर-करतलं परिपुष्ट-सुसिलिट्ठ-विसिह-कुडिल-तिक्ख-दाढा-विडम्बिय-मुहं विमल-कमल-कोमलउसके मुख आदि सभी अंगोपांग स्थिर, ठीक तरह से सटे हुए, पुष्ट स्निग्ध और सम्यक् प्रकार से विभागयुक्त थे। उसके सींग सघन थे, गोलाकार थे, चिकने थे, मनोहर थे, नुकीले और विशाल थे। वह शान्त और दान्त था अर्थात् उद्धत नहीं था। उसके सब दांत एक सरीखे, शोभायमान एवं निर्मल थे। युग्यता-गाडी में जुतने की योग्यता, धुरन्धरता [धुरा को धारण करने में मजबूती] आदि वृषभ के योग्य सभी गुणों से वह सम्पन्न था और अपनी धवलता एवं उच्चता आदि के कारण ऐसा प्रतीत होता था जैसे हिमालय पर्वत हो, ऐसे श्वेत वृषभ को त्रिशला देवी ने दूसरे स्वप्न में देखा ॥मू०१६॥ ચકચકિત હતી. તેનાં મુખ વગેરે બધા અંગે પાંગ સ્થિર, સપ્રમાણ, પુષ્ટ અને મુલાયમ હતાં. તેનાં શિગડાં નકકર, ગોળાકાર, સુંવાળાં, મનહર, તીણી અણિયાળા અને વિશાળ હતાં. તે શાન્ત અને દાન્ત હતો એટલે કે ઉદ્ધત ન હતું. તેનાં બધા દાંત એક સરખા, સુન્દર અને નિર્મળ હતા. યુગ્યતા-ગાડી સાથે જોડવાની યોગ્યતા, ધુરન્ધરતા (સરીને ધારણ કરવા માટેની મજબૂતી) વગેરે વૃષભને યોગ્ય બધા ગુણવાળે તે હતા, અને પિતાની વેતતા અને ઊંચાઈ આદિને કારણે તે હિમાલય પર્વત જેવું લાગતું હતું. એવા વેત વૃષભને ત્રિશલા દેવીએ બીજાં २१मा यो. (२०१६) SOTINYTO वृषभस्वप्नवर्णनम्. ॥४०८॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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