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________________ कल्प श्रीकल्प सूत्रे Il૨૮૮ાા છું तीर्थकरश्च भविष्यसि, अतस्तीर्थकरत्वेन भाविन भविष्यत्तीर्थकरं त्वां वन्दे नमस्करोमि। निजपितुर्भरतचक्रिण एवं वचनश्रवणेन पापभारः पापसमूहरूपः स्फारः अतिशयः कुलमदो मरीचिम् आविशत् । नात्र चित्रम् , यद् मरीचिः कुलमदेनाक्रान्तः! यतः कुलादिकृतो मदः समयमासाद्य-समयं प्राप्य विहङ्गमा पक्षी नीडमिव पक्षिनिवासस्थानमिव सद्यः तत्क्षणे एव जनमाविशति, इति हेतोःस मरीचिस्तत्क्षण एव अपारसंसारकान्तारपरिभ्रमणकारकम्-अपारम्-निरवधिको यः संसार:-चतुर्गतिकरूपः, स एव कान्तारं दुर्गमो मार्गों रागद्वेषादिलुण्टकाऽऽकीर्णत्वात् , तत्र यत्परिभ्रमण पुनः पुनर्जन्ममरणं, तस्य कारकम् , तथा-सकल-मुखतरुमलोन्मूलकम्-सकलानि ऐहिकपारलौकिकानि समस्तानि यानि सुखानि फलोपमानि तेषां तरु: वृक्षो धर्मस्तस्य मूलं विनयस्तस्य उन्मूलकं विनाशकं मानहालाहलं-मानोऽत्र कुलमदः, स एव हालाहलं=महाविषं तत्-कुलमदरूपं कालकूटविषम् मञ्जरी टीका महावीरस्य मरीचिनामकः नामक प्रथम वासुदेव, फिर पश्चिम महाविदेह की मूका नगरी में प्रियव्रत नामक चक्रवर्ती और फिर इस दक्षिण भरतक्षेत्र में महावीर नामक चरम तीर्थकर होओगे; अत एव तुम को मैं नमस्कार करता हूँ।' ___ अपने पिता भरत चक्रवर्ती के इस प्रकार के वचन सुनकर मरीचि में पापों का पिण्ड, घोर, कुलमद प्रवेश कर गया, अर्थात् कुल का मद उत्पन्न हो गया। मरीचि को कुलमद उत्पन्न हो गया, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। क्यों कि कुल आदि का मद अवसर पाकर मनुष्य में उसी तरह प्रवेश कर लेता है, जैसे पक्षी नीड-घोसले में प्रवेश कर लेता है। इस कारण मरीचिने उसी समय अनन्त, चारगति रूप तथा राग-द्वेष आदि लुटेरों से व्याप्त होने के कारण दुर्गम संसार-कान्तार में पुनः पुनः भ्रमण करने के कारणभूत और समस्त सुख रूपी फलों के वृक्ष धर्म के मूल अर्थात् विनय को उखाड़ कर फेंक देनेवाले कुलमदरूपी हालाहल-कालकूट को पी तृतीयो भवः। ||१८८॥ જે આત્મોન્નતિ મેળવી હતી તે ક્ષણવારમાં “અહંભાવ” લીધે ખેઈ બેઠો ને ચતુર્ગતિની પાટ ખેલવાની બાજી २३ ४ नीधी. 'मार-मनिभान-मा -मता-ममत्व भाव' मा सधणा पर्यायवाय शन्होछे. तमाમને અર્થ એક જ છે, આ મુખ્ય દુર્ગણ તમામ નાના મોટા દુર્ગાને નોતરે છે. ને “ અહંભાવ” મધ્યબિન્દુ માં રાખી આત્માને સર્વાશે ફેલી ખાય છે. આત્માથી પુરુષને સમયે સમયે પિતાને સૂક્ષ્મ ઉપયોગ રાખી આ દુર્ગુણમાંથી છુટવાને પ્રયત્નશીલ રહેવું યોગ્ય છે. જગતના સર્વોત્કૃષ્ટ પદાર્થોથી માંડી દેહ સુધીના પદાર્થોને આ જીવે ચોગ્ય છે જગત અને સમયે સમજે છે અહી શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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