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प्रियदर्शिनी टीका अ० ३६ नभश्चरजीवनिरूपणम्
रोमपक्षिणः, रोमप्रधानाः पक्षा रोमपक्षास्तद्वन्तः राजहंसादयः। तृतीयाः समुद्वपक्षिणः संपुटकाकारपक्षवन्तः पक्षिविशेषाः चतुर्थों विततपक्षिणः=ये सर्वदा विस्तारिताभ्यामेव पक्षाभ्यामुपविष्टा भवन्ति । तृतीय-चतुर्थ भेदान्तर्गताः-समुद्वपक्षिणस्तथा विततपक्षिणश्च अर्धतृतीयद्वीपाद् बहिर्वर्तिन इति बोध्यम् ॥१८९।। जानना चाहिये अर्थात् नभश्चर पंचेन्द्रिय तिर्यच चार प्रकारके होते है-१ ( चम्मे-चर्माणि ) चर्मपक्षा-चर्मरूप ही जिनके पक्ष होते हैं ऐसे चर्मचटक चमगादड आदिपक्षी (लोमपक्खीय-लोम पक्षिणः) लोमपक्षी जिनके पंख रोम प्रधान होते हैं ऐसे राजहंस आदि (समुग्गपक्खिया-समुद्ग पक्षिणः) समुद्रपक्षी जिनके पंख संपुटकके आकार जैसे होते हैं ऐसे पक्षि विशेष (विवयपक्खी-विततपक्षिणः) वितत पक्षी जो अपने पंख पसार कर ही बैठते हैं। समुद्गपक्षी तथा विततपक्षी ये दोंनो प्रकारके नभश्वर पंचेन्द्रिय निर्यश्च जीव ढाईद्वीपके बाहिर ही पाये जाते हैं। ___ अन्वयार्थ (ते सव्वे-ते सर्वे) ये सब नभश्चर पंचेन्द्रिय तिर्यश्च जीव (लोगेगदेसे-लौकैकदेशवर्तिनः) लोकके एक भागमें ही है (न सव्वत्थ-न सर्वत्र) सर्व लोकमें नहीं है (वियाहिया-व्याख्याताः) ऐसा तीर्थकर आदि महा पुरुषोंका कथन है। (इत्तो-अतः) अब मैं (तेसिं चउन्विहं कालविभाग वोच्छं-तेषां चतुविधम् कालविभागं वक्ष्यामि) इनके चार प्रकारके कालविभाग को कहता हूं ॥ १८८ ॥ __ अन्वायार्थ--(सन्तई पप्पणाईया विय अपजवसिया-सन्तति प्राप्य नलवर पयन्द्रिय तिय"य यार प्रा२ना डाय छे. १ चम्मे-चर्माणि य पक्षाચર્મરૂપ જેની પાંખે હેય એવા ચર્મચટક અર્થાત્ ચામાચિડિયા આદિ પક્ષી, लोमपक्खी-लोमपक्षिणः वामपक्षी-रेनी ५in शमप्रधान डाय छे. सेवा रास पोरे समुग्गपक्खिया-समुद्रपक्षिणः समुह पक्षी-नी पांग संपूट४ २। माना जाय छे. सेवा पक्षी विशेष विवयपक्खी-विततपक्षीणः वितत५क्षा જે પિતાની પાંખ પસારીને બેસે છે. સમુદ્રગપક્ષી તથા વિતતપક્ષી આ બંને પ્રકારના નશ્ચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચવ, અઢીદ્વિપની બહારજ જોવામાં આવે છે૧૮
स-याथ-ते सव्वे-ते सर्वे म सा नमश्वर पथन्द्रिय तियय 4 लोगेगदेसे-लोकैकदेशवर्तिनः ॥ ॐ नाम डाय छे. न सव्वस्थ-न सर्वत्र सामानही मेम वियाहिया-व्याख्याता तीर्थ ४२ २ भलाषा अथन छ. इत्तो-अतः वे ई तेसिं चउव्विहं कालविभागं वुच्छं-तेषां चतुर्विधम् कालविभागं वक्ष्यामि माना या२ १२न विभागने ४९ छु ॥ १८ ॥
भ-क्याथ---संतई पप्पणाईया विय अपज्जवसिया-सन्तति प्राप्य अनादिकाः
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૪