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________________ - - - प्रिवदर्शिनी टीका अ. १६ दशविधब्रह्मचर्यसमाधिस्थाननिरूपणम् ८३ षणैरस्य ब्रह्मचर्यधर्मस्य सप्रमाणता प्रतिपादिता । अस्य त्रिकालगोचरफलमाहअनेन ब्रह्मचर्यलक्षणधर्मेण पुरा अनन्तासु उत्सपिण्यवसर्पिणीसु सिद्धा अभूवन् , सम्प्रति महाविदेहेषु सिन्ति च । तथा-अपरे अनागतायामनन्ताद्धायां सेत्स्यन्ति=सिद्धा भविष्यन्ति । 'इति ब्रवीमि' इत्यस्यार्थः पूर्ववद् बोध्यः ॥१७|| इतिश्री-विश्वविख्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापर-वादिमानमर्दक-शाहूछत्रपति-कोल्हापुर-राजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालव्रतिविरचितायामुत्तराध्ययनसूत्रस्य प्रियदर्शिन्यां टीकायां ब्रह्मचर्यममाधिनामकं षोडशमध्ययनं संपूर्णम् । -नित्यः) द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अप्रच्युत अनुत्पन्न एवं स्थिर एक स्वभाववाला है और (सासए-शाश्वतः) पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा से शाश्वत्-निरंतर अन्य अन्य रूपों द्वारा उत्पन्न होने की वजह से शाश्वत है। अथवा त्रिकाल में भी अविनश्वर होने से नित्य, तथा त्रिकाल में फलदायक होने से शाश्वत है। इन ध्रुवादि विशेषणों द्वारा सूत्रकार ने इस ब्रह्मचर्यव्रत में प्रमाणता प्रतिपादित की है। त्रिकाल में इसका क्या फल होता है, इस विषय को सूत्रकार बतलाते हैं (अणेणं-अनेन) इस ब्रह्मचर्यरूप धर्म से (पुरा) अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालो में (सिद्धा) सिद्ध हुए हैं (सिझंति-सिध्यन्ति) महाविदेहोंमें अभि भी सिद्ध होंगे। (त्तिबेमि-इति ब्रवीमि) ऐसा व्याख्यान मैंने हे जम्बू ! श्री महावीर प्रभु के मुखसे सुना है सो तुमसे भी ऐसा ही कहा है॥१७॥ इस प्रकार यह सोलहवां अध्ययन का हिन्दी अनुवाद संपूर्ण हुआ॥१६॥ अप्रयुत अनुत्पन्न सने स्थीर मे स्वभावामा छ. मने सासए-शाश्वतः પર્યાયાથિક નયની અપેક્ષાથી શાશ્વત-નિરંતર અન્ય અન્ય રૂપ દ્વારા ઉત્પન્ન હોવાને કારણે શાશ્વત છે. અથવા ત્રિકાળમાં પણ અવિનશ્વર હોવાથી નિત્ય, તથા ત્રિકાળમાં ફળદાયક હોવાથી શાશ્વત છે. આ વાદિ વિશેષણે દ્વારા સૂત્રકારે આ બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં પ્રમાણતા પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે. ત્રિકાળમાં આખું શું ફળ મળે छ या विषयने सूत्रा२ मतावे छे अणेणं-अनेन मा ब्रह्मायय ३५ माथी पुरा मनात Gत्सपिणी मसपिणी काम सिद्धा-सिद्धाः सिद्ध थये छ. सिझंति-सिध्यन्ति મહાવિદેહમાં આજે પણ સિદ્ધ થાય છે અને અનાગત અનંતકાળમાં પણ સિદ્ધ થશે. એવું વ્યાખ્યાન હે જબ્બ શ્રી મહાવીર પ્રભુના મુખેથી સાંભળેલ છે. त्तिबेमि-इति ब्रवीमि 22 प्रमाणे १ तमान ४ छ. ॥१७॥ આ પ્રમાણે શ્રી ઉત્તરાધ્યનસૂત્રના સોળમા અધ્યનને ગુજરાતી ભાષા અનુવાદ સંપૂર્ણ उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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