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________________ ६४४ उत्तराध्ययनसूत्रे क्षमः क्षान्त्या क्षमागुणेन नत्वशत्या क्षमते-दुर्जनानां दुर्भावितादिकं सहते यः स तथा, स शक्तोऽपि क्षमागुणेन परोपद्रवसहनशीलः, संयतःसं-सम्यग यतः प्रयतः-जिनाज्ञाराधने तत्परः लुप्तपथमान्तं पदम् ब्रह्मचारी-नववाटिका विशुद्धब्रह्मचर्यसेवनशीलः, महाव्रतप्रतिपच्या स्वतः सिद्धस्य ब्रह्मचर्यस्य पुनब्रह्मचारीति कथनेन तस्य दुरनुचरत्वं सूचितम् तथा-सुसमाहितेन्द्रियः वशीकृतेन्द्रियश्च भूत्वा सावद्ययोगंवाङ्मनः काययोगानां सावधव्यापारं परिवर्जयन्= परित्यजन् अवरत-विहरतिस्म । आत्मनोऽनुशासनपक्षे चरेदिति च्छाया-हे आस्मन् ! भिक्षुः सर्वेषु भूतेषु दयानुकम्पी क्षान्तिक्षमः संयतब्रह्मचारी सुसमाहिन्द्रियतक के जीवों पर दयानुकंपी बने-दया से रक्षा करने रूप परिणति से-अनुकंपन शील बने (खंतिक्खमे-क्षान्तिक्षमः) क्षान्तिगुण से-क्षमा रूप आत्मिकगुण से-अशक्ति से नहीं-दुर्जनों के दुर्वचनोंको सहन करने वाले बने (संजयवंभयारी-संयतब्रह्मचारी) संयतभाव से ब्रह्मचारी बने नववाड से विशुद्ध ब्रह्मचर्य के सेवनमें लवलीन रहे-तथा (सुसमाहि इंदिए-सुसमाहितेन्द्रियः) पंच इन्द्रियों को वश में करके (सावजजोगं -सावद्ययोगम् ) वे मन, वचन एवं काय इन तीन योगों के सावध व्यापारों का (परिवजयंतो-परिवर्जन्) परित्याग करते हुए ही (चरेजअचरत् ) श्रुतचारित्ररूप धर्म के पालन करने में अथवा विहार करने में निरत हुए। आत्मानुशासनपक्षमें “चरेज” की संस्कृतछाया “चरेत्” ऐसी कर लेनी चाहिये। उसका भाव तब इस प्रकार हो जायगाअर्थात् समुद्रपाल मुनि ने अपनी आत्मा को इस प्रकार समझाया-कि हे आत्मन् ! भिक्षु समस्त जीवों पर दयावान् क्षान्तिक्षम, संयतब्रह्मध्यानु पी मन्या-याथी २क्षा ४२१॥ ३५ परिणतिथी-मनुपन ela मन्या. खंतिकखमे शान्तिक्षमः क्षान्ति गुणथी-क्षमा३५, मामिगुथी-पति ना-नाना हुपश्यना सहन ४२१।१७मन्या. संजयवंभयारी-संयतब्रह्मचारी संयतमाथी બ્રહ્મચારી બન્યા, નવાવાડથી વિશુદ્ધ બ્રહ્મચર્યના સેવનમાં લવલીન રહ્યા તથા सुसमाहिइंदिए-मुसमाहितेन्द्रियः पांयन्द्रियाने वशमा परीने ते सावज्जजोगंसावधयोगम् मन, वयन भने आया ३ योगाना सावध व्यापाशनु परिवजयंतो-परिवर्जन परित्याग ४शन चरेज-अचरत श्रुत यरित्र३५ भनुपालन ४२१मा अथवा विहार ४२वामा निरत थया. मात्मानुशासन पक्षमा "चरेज"नी संस्कृत छाया "चरेत" की श देवी ये. माने। भाव त्यारे मा ४२ने। થઈ જશે. અર્થાત્ સમુદ્રપાલ મુનિએ પોતાના આત્માને આ પ્રકારે સમજાવ્યો કે હે આત્મન ! ભિક્ષુ સઘળા જી તરફ દયાવાન, ક્ષાતિક્ષમ, સંયત બ્રહ્મચારી અને उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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