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________________ प्रिवदर्शिनी टीका अ. १६ दशविधब्रह्मचर्यसमाधिस्थाननिरूपणम् टीका-'कयरे' इत्यादि। हे भदन्त ! 'थेरेहि' स्थविरैः 'भगवंतेहि' भगाद्भिः 'पणत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तानि' 'दस बंभचेरसमाहिट्ठाणा' दश ब्रह्मवर्यसमाधिस्थानानि खलु ‘कयरे' कतराणि-कानि सन्ति ? भिक्षुचर्यानि श्रुत्वा निशम्य संयमबहुलः संपरब हुलः समाधिबहुलो गुप्तो गुप्तेन्द्रियो गुप्तब्रह्मचारी अप्रमत्तश्च सन् सदा विहरेत् ॥२॥ अब दशविध ब्रह्मचर्यस्थानों को सूत्रकार कहते हैं'कयरे खलु' इत्यादि । अन्वयार्थ-सुधर्मास्वामी के वचनों को सुनकर जंबूस्वामी उनसे पूछते हैं कि-(थेरेहिं-भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिट्ठाणा पण्णत्ता कयरे खलु ते-स्थविरैः भगवद्भिः दश ब्रह्मचर्य सनाविस्थानानि प्रज्ञप्तानि तानि खल कतराणि) स्थविर भगवंतोंने जो ब्रह्मचर्य के समाधिस्थान दस कहे हैं वे कौन से हैं कि (जे भिक्खू सोचा निसम्म संजमबहुले संघरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्त बंभयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा-यानि भिक्षुः श्रुत्वा निशम्य सयमबहुलः संवरबहुलः समाधिबहुलः गुप्तः गुप्तेन्द्रियः गुप्तब्रह्मचारी सदा अप्रमत्तः विहरेत् ) जिन को भिक्षु सुनकर तथा हृदय में धारण कर सयमबहुल बन जाता है, संवरबहुल बन जाता है समाधिबहुल बन जाता है, गुप्त बन जाता है, गुप्तेन्द्रिय बन जाता है गुप्तब्रह्मचारी बन जाता है और सदा अप्रमत्त होकर मोक्षमार्ग में विचरण करता रहता है ॥२॥ હવે બ્રહ્મચર્યનાં દશવિધ સ્થાનોને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે– "कयरे खलु" त्या ! અન્વયાર્થ–સુધર્માસ્વામીનાં વચનેને સાંભળીને જ બૂસ્વામી એમને પૂછે છે કે, थेरेहिं भगवंतेहि दस बंभवेरसमाहिट्ठाणा पण्णता कयरे खलु ते-स्थविरैः भगवद्भिः दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि तानि खलु कतराणि स्थविर ममता से ब्रह्मययन समाधीस्थान उस छ ते या छ , जे भिक्ख सोचा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तेदिए गुत्तभयारिसया अप्पमत्ते विहरेजा-यानि भिक्षुःश्रुत्वा निशम्य संयमबहुलः संवरबहुलः समाधिबहुलः गुप्तः गुप्तेन्द्रियः गुप्तब्रह्मचारी सदा अप्रमत्तः विहरेत् २२ समजाने तथा यमा ધારણ કરીને ભિક્ષુ સંયમબહુલ બને છે. સંવરબહુલ બની જાય છે. સમાધિબહુલ બની જાય છે. ગુપ્ત બને છે. ગુતેન્દ્રિય બની જાય છે. ગુપ્તબ્રહ્મચારી બની જાય છે. તથા સદા અપ્રમત્ત બનીને મોક્ષમાર્ગમાં વિચરણ કરતા રહે છે. પરા उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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