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________________ ११८ उत्तराध्ययनसूत्रे टीका-'जया' इत्यादि । यदा सर्वम् अन्तः पुरादिकं कोश कोष्ठागारभाण्डागारादिकं च परित्यज्य अवशस्य-परतन्त्रस्य ते-तब भवान्तरमवश्यमेव गन्तव्यम् । तदा हे राजन् । अनित्येऽस्मिन्जीवलोके राज्ये किं प्रसज्जसि-कथं प्रसक्तो भवसि ? ॥१२॥ किंच मूलम्--जावियं चेर्व सैवं च, विजुसंपायचंचलं। जत्थे ते मुसि रायं, पेञ्चत्थं जावबुज्.सि ॥१३॥ छाया-जीवितं चैव रूपं च, विद्युत्संपातचञ्चलम् । यत्रत्वं मुह्यसि राजन् !, प्रेत्याथै नावबुध्यसे ।।१३।। टीका--'जीवियं' इत्यादि । हे राजन् ! यत्र-जीविते रूपे च त्वं मुह्यसि मोहं प्रामोषि, तज्जीवितं 'जया' इत्यादि ! अन्वयार्थ-(जया-यदा) जब यह बात निश्चित है कि (अवस स्स-अवशस्य) मृत्यु के पंजे द्वारा परोक्षरूप में पराधीन हुए (ते-ते) तुम को (सब्वं प्ररिच्चज्ज-सर्व परित्यज्य) इस अन्तःपुर, कोश, कोष्ठागार, भाण्डागार आदि का परित्याग करके (गंतव्वं-गन्तव्यम् ) भवान्तर में जाता है तो हे राजन् ! फिर (किं-किम् ) क्यों (अनिच्चे जीवलोगम्मिअनित्ये जीवलोके) अनित्य-अनवस्थित इस जीवलोक में वर्तमान (रज्जम्मि-राज्ये) क्षणभंगुर राज्यमें (पसज्जसि-प्रसजसि) फंस रहे हो ॥१२॥ फिर भी-'जीवियं' इत्यादि ! अन्वयार्थ हे राजन् ! (जत्थ तं मुज्झसि-यत्र त्वं मुह्यसि) जिन "जया" त्यहि! स-क्या--जया-यदा न्यारे से वात निश्चित छ , अवस्सस्स-अवशस्य भृत्युना 4थी पराधीन से न ता ते-ते तमामे सव्वं परिच्चज्ज-सर्व परित्यज्य मा सन्तःपुर, शि 11२, सेना, साहसी, माहिनी परित्याग ने गंतव्यम्-गन्तव्यम् भवा-१२मा पानु छ. तो, सन् ! पछी किं-किम शा भाटे अनिच्चे जीवलोगम्मि-अनित्ये जीवलोके मा भनित्य-मनवस्थित सा मां व भान रजम्मि-राज्ये क्षमा २ सेवा ॥ Norयसभा पसज्जसि-प्रसज्जसि ॥ भाटेसा २ छ। १ ॥१२॥ छतi पशु-"जीवियं" ध्याह! मन्वयार्थ - रान ! जत्थ त्वं मुज्झसि-यत्र त्वं मुह्यसिरे वन मावि ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૩
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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