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प्रियदर्शिनी टीका अ. १७ पापश्रमणस्वरूपम्
१०७ अमृतमित्र पूजितः चतुर्विधसधैः प्रशंसितः सन् इमं लोकं तथा परं लोकं च आराधयति । 'इति ब्रवीमि' इत्यस्यार्थः पूर्ववद्बोध्यः ॥२१॥ इतिश्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-शाहूछत्रपति-कोल्हापुर-राजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालप्रतिविरचितायामुत्तराध्ययनसूत्रस्य प्रियदर्शिन्यां
टीकायां पापश्रमणीयं नाम सप्तदशमध्ययनं समाप्तम् । वह मुनियों के बीच प्रशस्त-व्रतधारी माना जाता है। तथा वह (अयंसिलोए-अस्मिन् लोके) इसलोकमें (अमयं व-अमृतमिव) अमृत के समान (पूइए-पूजितः) आदरणीय होता है। चतुर्विध संघके द्वारा आदरणीय होकर वह (इणं लोगं तहा परंलोगं आराइए-इमं लोकं तथा परलोकं आराधयति) अपने इसलोक को एवं परलोकको भी सफल बना लेता हैं । (त्तिबेमि-इति ब्रवीमि) ऐसा मैं कहता हूं अर्थात्सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते कह रहे हैं कि जैसा मैंने श्रीवीरप्रभु से सुना हैं सो तुम से कहा हैं। अपनी तर्क से कुछ नहीं कहाहैं ॥२१॥
पापश्रमणीय नामके इस सत्रह वें अध्ययन का हिन्दी अनुवाद
समाप्त हुआ ॥ १७ ॥ तथा ते अयंसिलोए-अस्मिन्लोके मामा अमयं व-अमृतमिव अभूतनी भा३४ पूइए-पूजितः आ४२७य थाय छ. यतुविध २॥ आ६२ पाभीने ते इणं लोगं तहा परं लोगं आराहए-इमं लोकं तथा परं लोकं आराधयति पाताना मा भने परसाने ५९ सण मनावी से छ. त्ति बेमि-इति ब्रवीमि मे छु .
સુધર્માસ્વામી જબૂસ્વામીને કહે છે કે જેવું મેં મહાવીરપ્રભુ પાસેથી સાંભળેલ છે તે તમને કહ્યું છે. મારા પિતાના તરફથી કાંઈ પણ કહેલ નથી. શ્રી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના પાપશ્રમણીય નામના સત્તરમા અધ્યયનને
ગુજરાતી ભાષા અનુવાદ સંપૂર્ણ. ૧ળા
उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3