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________________ ४० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे च प्रकृष्टा नदी, एवमग्रे सिन्ध्वादिष्वपि प्रकृष्टत्वं बोध्यम् , 'पवूढा' प्रव्यूढा निःमृता 'समाणी' सती 'पुरत्थाभिमुही' पौरस्त्याभिमुखी पूर्वाभिमुखी 'पंच जोयणसयाई' पञ्चयोजनशतानि 'पव्वएणं' पर्वतेन-पर्वतमार्गेण यद्वा पर्वते पर्वतोपरि 'ण' खलु 'गंता' गत्वा 'गंगावणकूडे' गङ्गावर्तकूटे-गङ्गावर्तनामके कटे गिरिशिखरे अत्र सामीप्ये सप्तमी तेन तत्समीपे गङ्गावर्त्तकूटस्याधस्ताद् 'आवत्ता' आवृत्ता-परावृत्ता 'समाणी' सती प्रत्यावृत्येत्यर्थः 'पंच तेवीसे जोयणसए' पञ्चत्रयोविंशानि योजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकपञ्चशतयोजनानि, "तिणि य एगूणवी सइभाए जोयणस्स' त्रींश्च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य 'दाहिणाभिमुही' दक्षिणाभिमुखी 'पव्वएणं गता' पर्वतेन गत्वा 'महया घडमुहवत्तएणं' महाघटमुखप्रवृत्तिकेन महाघटः बृहद्घटस्तस्य यन्मुखं तस्मात् प्रवृत्ति निगमो यस्य स जलसम्रहः स इव महाघटमुखप्रवृत्तिकस्तेन तथा-महाघटमुखान्निस्सरजलसमूहवच्छब्दायमानवेगवता प्रपाते नेत्यनि मेण सम्बन्धः, 'मुत्तावलिहारसंठिएणं' मुक्तावलिहारसंस्थितेन मुक्तावलीनां मुक्तासरीणां यो पव्वएणं गंता गंगावत्तणकूडे आवत्ता समाणी) गंगा नामकी महानदी अपनी परिवार भूत १४ हजार नदियों रूपी सम्पत्ति से युक्त होने के कारण तथा स्व. तन्त्र रूप से समुद्रगामिनी होने के कारण प्रकृष्टनदी-निकली हैं सिन्धु आदि. नादियों में भी इसी प्रकार से प्रकृष्टता जाननी चाहिये यह गंगा महानदी पूर्वाभिमुखी होकर पांचसो योजन तक उसी पर्वत के ऊपर बहती हुई गङ्गावर्त नामके कूट तक न पहुंच कर प्रत्युत उसके पास से लौटकर (पंच तेवीसे जोयणसए तिषिण एगूणवीसइभाए जोयणस्त दाहिणाभिमुही पव्वए णं गंता) ५२३०० योजन तक दक्षिणदिशा की तरफ उसी पर्वत से मुडजाती है (महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलिहारसंठिए णं साइरेगं जोयणसइएणं पवाएणं पव. डइ) और बडे जोर शोरके साथ घटके मुख से निकले हुए शब्दायमान जल प्रवाह के तुल्य तथा मुक्तावलिनिर्मित हार के जैसे संस्थान वाले ऐसे एक सौ वत्तणकूडे आवत्ता समाणी' ॥ महा नही पोताना परिवार भूत १४ ४०१२ નદીઓ રૂપી સંપત્તિથી યુક્ત હવા બદલ તેમજ સ્વતંત્ર રૂપથી સમુદ્રગામિની હોવા બદલ પ્રકૃષ્ટ નદી છે. સિધુ આદિ નદીઓમાં પણ આ પ્રમાણે જ પ્રકૃષ્ટતા જાણવી જોઈએ. એ ગંગા મહાનદી પૂર્વાભિમુખ થઈને પાંચસે જન સુધી તેજ પર્વત ઉપર પ્રવાહિત થતી गायत नामट सुधी न पहथीन तुतनी पासेथी पाछीरी पंच तेवीसे जोयणसए तिण्णिएगूणवीसइभाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गता' ५२33योन सुधी क्षिर हिश त२५ ते पति पासेथी पाछी रे छे. महया धडमुहपवत्तएणं मुत्तावलिहारसंठिए णं साहाइरेग जायण सइएण पवारण पवडइ' अने भूम० प्रय गथी मने प्रय २५२ साथै घाना મુખમાંથી નિસ્કૃત શબ્દમાન જલ પ્રવાહ તુલ્ય તેમજ મુક્તાવલિ નિર્મિત હાર જેવા સં@ાન જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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