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________________ ४८८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दिति सिंहासनेऽभिषेक इति द्वयोः सिंहासनयोः प्रयोजनम् । अथ द्वितीयाभिषेकशिलां वर्णयितुमुपक्रमते - 'कहिणं भंते !' इत्यादि - प्रश्नसूत्रं स्पष्टम् उत्तरसूत्रे 'गोयमा' गौतम ! 'मंदर चूलियाए' मन्दर चूलिकायाः 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन दक्षिण दिशि 'पंडगवणदा हिणपेरं ते ' पण्डकवन दक्षिणपर्यन्ते - पण्डकवनस्य दक्षिणसीमा पर्यन्तभागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'णं' खलु 'पंडगवणे' पण्डकवने 'पंडुकंबलसिला णामं सिला' पाण्डुकम्बलशिला नाम शिला 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च ' पाईणपडीणायया' प्राचीनप्रतीची नाऽऽयता पूर्वपश्चिमदिशो दीर्घा 'उत्तरदाहिणवित्थिष्णा' उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा- उत्तरदक्षिणदिशो विस्तारयुक्ता, एतद्विशेषणद्वयं विहायापरं पूर्वोक्तमतिदिशति 'एवं तं चेव' एवम् पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण तदेव प्रागुक्तमेव 'पमाणं' प्रमाणं - पञ्च योजनशतायामादिमानं भणितव्यं तथा 'वत्तच्वया' वक्तव्यता 'य' च 'भाणियच्या' भणितव्या सा च वक्तव्यता किम्पर्यन्ता ? इत्यपेक्षायामाह - ' जाव तस्स णं' का अभिषेक दक्षिण दिग्वती सिंहासन पर होता है इस तरह यह दो सिंहासनों के होनेका प्रयोजन है 'कहिणं भंते! पंडकवने पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पंडकवन में पाण्डुकम्बल शिला नामकी द्वितीय शिला कहां पर कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! मन्दर चूलिआए दक्खिणेणं पंडगवणदाहिण पेरते, एत्थणं पंडगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम ! मन्दर चूलिका की दक्षिणदिशा में और पाण्डुवन की दक्षिण सीमा के अन्त भाग में पण्डकवन में पाण्डुकंबल शिला नामकी शिला कही गई है' पाईण पडणाया उत्तर दाहिण विच्छिण्णा एवं तं चेन पमाणवत्तब्वया य भाणियच्वा' यह शिला] पूर्व से पश्चिम तक लम्बी है और उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत है । इसका पंच योजन शत प्रमाण आधामादिका पूर्वोक्त अभिलाप के अनुसार कहलेना चाहिये यावत् इसका जो बहुसमरमणीय भूमिभाग है उसके बहुमध्य देश में एक सिंहासन है यही बात 'जाव तरसणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स કરાના અભિષેક દક્ષિણ દિગ્વી` સિંહાસન ઉપર થાય છે. આ પ્રમાણે એ એ સિહાસના शा भाटे छे तेनु प्रयोजन स्पष्ट श्वामां आवे छे. 'कहिणं भंते! पंडगवणे पंडुकंबल सिला णामं सिला पण्णत्ता' हे लत ! ' वनम पांडुभव शिक्षा नाभे मील शिक्षा या स्थणे मावेसी छे? सेना नवाजभां प्रभु ४ छे - 'गोयमा ! मन्दरचूलिआए दक्खि ण पंडगवणदाहिणपेरंते' एत्थणं पंडगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम! મન્દર ચૂલિકાની દક્ષિણ દિશામાં અને પડકવનની દક્ષિણ સીમાના અન્તભાગમાં પડકવનમાં पांडु ४जस शिक्षा नाभे शिक्षा आवेली छे. 'पाईणपडीणाय्या उत्तरदाहिणविच्छिण्णा एवं तं चैव पमाणवत्तव्या य भाणियव्वा' मा शिक्षा पूर्वथी पश्चिम सुधी सांणी छे भने उत्तरथी દક્ષિણ સુધી વિસ્તૃત છે. એના પાઁચ યાજન શત પ્રમાણ આયામાદિ પ્રમાણ વિશે પૂર્વોક્ત અભિલાષ મુજબ સમજી લેવું જોઈ એ, યાવત્ એના જે અહુ સમરમણીય ભૂમિભાગ છે, જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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