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________________ ३२२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे र्भावः 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तः, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'तेसि' तेषां दक्षिणाई विजयोत्पन्नानां 'ण' खलु ‘मणुयाणं' मनुजाना 'छब्बिहे' षविधं 'संघयणे' संहननम्-अस्थिसंचयः तत् 'पविधं-वज्रऋषभनाराच १ ऋषभनाराच २ नाराच ३ अर्द्धनाराच ४ कीलिका ५ सेवात ६ भेदात् 'जाव' यावत्-अत्र यावत्पदेन 'छविहे संठाणे पंचघणुसयाई उद्धं उच्चेतेणं जहण्णेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं पुवकोडीआउयं पालेंति पालेत्ता अप्पेगइया णिरयगामी जाव अप्पेगइया सिझंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वायंति' इति सङ्ग्राह्यम् एतच्छाया-'षडू. विधं संस्थानं पञ्चधनुः शतानि ऊध्र्वमुच्चत्वेन जघन्येन अन्तर्मुहर्तम् उत्कर्षण पूर्वकोटयायुः पायलन्ति पालयित्वा अप्येकके निरयगामिनः यावत् अप्येकके सिद्धयन्ति बुध्यन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति' इति 'सव्वदुक्खाणमंत' सर्वदुक्खानामन्तं 'करेंति' कुर्वन्ति एषां व्याख्या प्रकार का आयारभावपडोयारे' आकारभाव प्रत्यवतार आकार माने स्वरूप भाव-अन्तर्गत भाव अर्थात् संहननादि पदार्थ उन दोनों के साथ प्रत्यवतारप्रादुर्भाव 'पण्णत्ते?' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं-'गोयमा!' हे गौतम ! 'तेसिं' उस दक्षिणाई विजय में उत्पन्न हुए ‘णं मणुयाणां' मनुष्यों के 'छविहे' छह प्रकार का 'संवयणे' संहनन अर्थात् अस्थिसंचय-वह छप्रकार वज्रऋषभनाराच१, ऋषभनाराच२, नाराच३, अर्द्धनारणं ४, कीलिका ५, सेवात्त ६. के भद से हैं 'जाव' यावत् यहां यावत्पद से 'छविहे संठाणे पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्ते णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी आउयं पालेंति पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी जाव अप्पेगइया सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति' इन पदों का संग्रह हुवा है। इस का अर्थ इस प्रकार है-छ प्रकार का संस्थान है, पांचसो धनुष के ऊंचे है, जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट से पूर्वकोटि की आयुवाले हैं आयु के क्षय होने पर कितनेक मोक्षगामी होते हैं यावत कितनेक सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होते हुए परिनिर्वाण को प्राप्त कर के 'सव्व दुःखाणमंतं यारे २२ मा भने प्रत्यक्ता२ अर्थात् ४२ थेटले स्व३५ माटो मतगत मा अर्थात् सनना हा प्रत्यक्ता२-प्रादुर्भाव 'पण्णत्ते' हे छ ? २॥ प्रश्नना पमा प्रभुश्री ३ --'गोय!' हे गौतम ! 'तेसिं' के लिए नियम पन्न थये। 'णं मणुयाणं' भनुष्याना 'छव्विहे' छ प्रा२ना 'संघयणे' सहनन अर्थात् मस्थि સંચય છે. તે છ પ્રકાર આ પ્રમાણે છે. –વજષભનારાશ ૧, ઝષભનારાચ ૨, નારાચ ૩, मनाराय४; सिर ५, सेवात ना मेथी छ. 'जाव' यावत् माडी यां यावत्पथी 'छविहे संठाणे पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेण जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुत्वकोडी आउयं पालेंति पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी जाव अप्पेगईया सिझंति, मुच्चंत्ति, परिणिब्वायति' मा पहाना સંગ્રહ થયેલ છે. આને અર્થ આ પ્રમાણે છે.-છ પ્રકારના સંસ્થાન છે. પાંચસો ધનુષ જેટલા ઉંચા છે. જઘન્યથી અન્તર્મુહૂર્તની અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂર્વ કેટિનું આયુષ્ય છે. આયુને જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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