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________________ ३२३ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् चैकादशसूत्राद् बोध्या । एवं चास्य कर्मभूमिरूपत्वं निर्णीतम् अथास्य सीमाकारी वैताढ्य - पर्वतः कुत्रास्तीति पृच्छति -- 'कहिं णं' इत्यादि क्व खलु 'भंते ! भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'कच्छे' कच्छे 'विजए' विजये 'वेयद्धे' वैतादयः 'णा' नाम 'पव्वए !' पर्वतः ? प्रज्ञप्त इति शेषः, इति प्रश्ने भगवानाह - 'गोमा !' गौतम ! ' दाहिणद्धकच्छविजयस्स' दक्षिणार्द्धकच्छविजयस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'चितकूडस्स' चित्रकूटस्य पर्वतस्य 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'माल - वंतस्स' माल्यवतः माल्यवन्नामकस्य 'वक्खारपव्वयस्सा वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन - पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र - अत्रान्तरे णं' खलु 'कच्छे विजए' कच्छे विजये 'वेयद्धो नाम ' करेति' समस्त दुःखों का अन्त- पार करते हैं। इस की समग्र व्याख्या ग्यारहवें सूत्र से समझलेवें । इस प्रकार इस का कर्मभूमिरूप निरूपित किया है। अब सीमाकारी वैताढ्य पर्वत कहां पर है ? इस विषय की गौतमस्वामी पृच्छा करते हैं - 'कहि णं भंते !' हे भगवन् कहां पर 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबूद्वीप नाम के द्वीप में 'महाविदेहे वासे' महाविदेहक्षेत्र में 'कच्छे विजए' कच्छनाम का विजय में 'वेयद्ध' वैताढ्य 'णाम' नामका 'पच्चए' पर्वत कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभु कहते हैं - 'गोयमा !" हे गौतम 'दाहिणाद्ध कच्छविजयस्स' दक्षिणार्द्ध कच्छविजय की 'दाहिणेणं दक्षिणदिशा में 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट पर्वत की 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशा में 'मालवंतस्स' माल्यवान् नाम के 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पुरत्थिमेणं' पूर्वदिशा में 'एत्थ' यहां पर 'णं' निश्चित 'कच्छे विजए' कच्छविजय में 'वेयद्वो णाम' पव्वए' वैताढ्य नाम का पर्वत 'पण्णत्ते' कहा है 'तं जहा' वह पर्वत कैसा है ? सो कहते हैं ક્ષય થવાથી કેટલાક મેાક્ષગામી થાય છે. યાવત્ કેટલાક સિદ્ધ, બુદ્ધ, અને મુક્ત થઈને परिनिर्वाणुने आप्त पुरीने 'सव्व दुक्खाणमंतं करेति' सधना हु:योनो अंत चार रे छे. આની તમામ વ્યાખ્યા અગીયારમાં સૂત્રમાંથી સમજી લેવી. આ રીતે આમનુ કમભૂમિ રૂપ નિરૂપણ કરેલ છે. હવે સીમાકારી ચૈતાઢય પર્યંત ક્યાં આવેલ છે? આ વિષય સધી ગૌતમસ્વામી प्रश्न २ छे.- 'कहिणं भंते!' हे भगवन् ! ज्यां भागण 'जंबुद्दीवे दीवे' यूद्वीप नामना द्वीपमा 'महाविदेहे वासे' महाविदेह क्षेत्रमां 'कच्छे विजए' १२७ नामना विश्यभां 'वेयद्धे' वैताढ्य 'णाम' नाभा 'पव्व' पर्वत आहेस छे ? श्या प्रश्नना उत्तरमां महावीर प्रभुश्री हे छे. - 'गोयमा !' हे गौतम! ' दाहिणद्ध कच्छविजयरस' ६क्षिणाध १२ विभयनी 'दाहिणेणं' दक्षिण दिशामा 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट पर्व - तनी 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशाभां 'मालवंतस्स' भाझ्यवान् नाभना 'वखारपव्वयरस' वक्षार पर्वतनी 'पुरत्थिमेणं' पूर्व दिशामां 'एत्थणं' त्यां भागण 'कच्छे विजए' १२७ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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