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________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २२ नीलवन्तादिहदवर्णनम् २५१ तीसाई दुष्णि मज्झमि' मध्ये सप्तत्रिंशे - सप्तत्रिंशदधिके द्वे योजनशते 'उवरितले' उपरितले 'अट्ठावणं च ' अष्टपञ्चाशम् अष्ट पञ्चाशदधिकं 'सयं' शतं ' परिरओ' परिरयः - परिधिः ॥ २ ॥ इह च मूले परिधौ मध्यपरिधौ च किञ्चिद्विशेषाधिकमनुक्तमपि बोध्यम्, अथ क्रमेण पश्चानामपि दानां नामानि निर्दिशति - 'पढमित्थ' इत्यादि - 'पढमित्थ' प्रथमः- आदिमः 'णीलवतो' - बितीओ उत्तरकुरु२ मुणेयच्चो' नीलवान् १ द्वितीय उत्तरकुरुः २ ज्ञातव्यः - बोध्यः, 'चंदद्द होत्थ तइओ३' चन्द्रहृदः अत्र - पञ्चसु तृतीयः ३ ' एरावए' ऐरावतः चतुर्थः ४ 'माल - वंतो य' माल्यवान् च पञ्चमः ५ बोध्यः | ३| अथानन्तरोक्तानां काञ्चनपर्वतानामेषां हृदादीनां च स्वरूपनिरूपणार्थं लाघवार्थमेकमेव सूत्रमाह - ' एवं वण्णओ' इत्यादि - ' एवं ' एवं- नीलवद्दानुसारेण उत्तरकुरु हदादीनामपि 'वणओ अहो' वर्णकोऽर्थश्च बोध्यः, तथा तेषां 'पमाणं' प्रमाणं - मानं तत्र पल्योपमस्थितिका 'मूलंमि तिणि' मूल में तीनसो योजन 'सोले' सोलह अर्थात् मूल में तीन सो सोलह योजन 'सततीसाइं दुण्णि मज्झमि' दोसो से तीस योजन मध्य में 'उवरितले' ऊपर के भाग में 'अट्ठावण्णं च' अठावन 'सयं' सो अर्थात् अट्ठावन सो का 'परिरओ' परिधि-घेराव है ॥२॥ यहां मूलकी परिधि एवं मध्य की परिधि में कुछ विशेषाधिक भी कहा है। अब क्रम से पांचों हृदों के नाम कहते हैं- 'पढमित्थणीलवंतो' प्रथम नील वंत पर्वत है, 'बितीयो उत्तरकुरु मुणेयच्वो' दूसरा उत्तरकुरु कहा है, 'चंदहत्थ तइओ' चंद्र हृद तीसरा कहा है 'एरावए चउत्थ' ऐरावत चोथा है 'माल वंतो य' माल्यवान् पांचवां कहा है ॥ ३॥ अब पूर्वोक्त कोंचन पर्वत एवं उनके हृदादि के स्वरूप निरूपणके लिए लाघव करने के हेतु से एक ही सूत्र कहते हैं- ' एवं ' नीलवंत हृद के कथनानुसार उत्तर कुरु हृदादि के भी 'वण्णओ अट्टो' वर्णन करलेना, तथा उनका 'मूलंमि तिणि' भूणभां सो योन 'सोले' सोण अर्थात् भूणमां त्रयु सो सोज योन 'सत्ततीसाई' दुहि मज्झमि' असे सात्रीस येोजन मध्यभां 'उवरितले' उपरना लागभां 'अट्ठावण्णं च' अट्टावन 'सयं' सो अर्थात् अट्टावन सोने। 'परिरओ' परिधि घेरावे छे. ॥ २ ॥ અહીંયાં મૂલની પરિધિ અને મધ્યની પરિધિમાં કંઈક વિશેષાધિક પણ કહેલ છે. हवे उमधी यांचे हृहोना नाम डे छे. - ' पढमित्थ णीलवंते' पहेलु' नीसवंत (हृह छे. 'बितीयो उत्तरकुरु मुणेयवो' जीले उत्तर ३ उडे छे. 'चंदहहोत्थ तईयो' चंद्र हृह त्रीले उस छे. ' एरावर चउत्थे' रावत थोथे छे. 'मालवतोय' भात्यवान् हृह पांयभुं छे. ॥३॥ હવે પૂર્વોક્ત કાંચન પંત અને તેના હૃદાદિના સ્વરૂપનું કથન કરવા માટે સંક્ષેપ કરવાના હેતુથી એક જ સૂત્ર કહે છે-“ૐ” નીલવંત હૃદના કથન પ્રમાણે ઉત્તર કુરૂ આદિ हृहाडीनु' 'वण्णओ अट्ठो' वर्षान उरी सेवु तथा तेनु' 'पमाणं' भानाहि प्रभाग याग पेन જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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