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________________ २५० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नीलवद्धदस्य पूर्वापरे-पूर्वस्मिन्नपरस्मिंश्च 'पासे दस२ जोयणाई अवाहाए' पार्श्वे दश २ योजनानि अबाधया कृत्वेति गम्यम्-अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु दक्षिणोतरश्रेण्या परस्परं मूले संबद्धाः, अन्यथा शतयोजनविस्ताराणा मेषां सहस्रयोजनमाने हृदायागेऽवकाशासम्भव इति 'वीसं विंशतिः-विंशति संख्यकाः२ 'कंचणगपव्वया' काञ्चनपर्वताः-सुवर्णपर्वताः 'पण्णता' प्रज्ञप्ताः, 'एग जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं' एक योजनशतम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, एषां काञ्चनपर्वतानां विष्कम्भ-परिक्षेपौ गाथाद्वयेनाह-'मूलंमि जोयणसयं' इत्यादि -'मूलंमि' मूले-मुलावच्छेदेन 'जोयणसयं' योजनशतम् 'पण्णतरि जोयणाई मझमि' मध्ये पञ्चसप्ततिः योजनानि, 'उवरितले' उपरितले-शिखरतले 'कंचणगा' काश्च. नका:-काश्चनपर्वताः 'पण्णासं जोयणा हुंति' पञ्चाशतं योजनानि भवन्ति ।१। ___ 'मूलंमि तिण्णि' मूले त्रीणि योजनशतानि 'सोले' षोडशानि-पोडशाधिकानि, 'सत्त ___ अब काश्चनगिरिकी व्यवस्था कहते हैं-'नीलवंतस्स दहस्स पुवावरे' नीलवंत हृद के पूर्व एवं पश्चिम 'पासे दस जोयणाई अबाहाए' पार्श्व में दस दस योजन की अबाधासे अर्थात् अपान्तराल में छोड करके 'एत्थ गं' यहां दक्षिणो. त्तर श्रेणीसे परस्पर मूल में संबद्ध अन्यथा सो योजन विस्तार वाले, इनको हजार योजन मान में हृद का आयाम-लंबाई का अवकाशका असम्भव होता 'वीसं' वीस 'कंचणगपव्वया' कांचन पर्वत-अर्थात् सुवर्ण पर्वत 'पण्णत्ता' कहा है वे पर्वत 'एग जोयणसयं उद्धं उच्चत्तणं' एकसो योजन का ऊंचा है। ___ अब वे कांचन पर्वत का विष्कम्भपरिक्षेप दो गाथा से कहते हैं-'मूलंमि जोयणसयं' मूल भाग में सो योजन 'पण्ण तरि जोयणाई मज्झंमि' सतावन योजन मध्य भाग में 'उवरितले' शिखर के भाग में कांचन पर्वत 'पण्णासं जोयणा हुति' पचास योजन होता है ॥१॥ वयन GIRना समयमा ४थन ४२ामा न्यावे -'नीलवंतस्स दहस्स पुव्वा वरे' नीसन पूर्व मने पश्चिम 'पासे दस दस जोयणाई अबाहाए' मान्नु ये इस દસ એજનની અબાધાથી અર્થાત્ અપાન્તરાલમાં છોડીને “થળે ત્યાં આગળ દક્ષિણેત્તર શ્રેણીથી પરસ્પર સંબદ્ધ અન્યથા સે જન વિસ્તારવાળ આને હજાર એજનના માપમાં न। मायाम-समान २५१४ाशन असमथात, 'वीसं' वास 'कंचणग पव्वया' यन यवत अर्थात् सुवर्ण पत 'पण्णत्ता' उस छे. थे त 'एगं जोयणसयं उद्धं उच्च. तण' से सेो योन से। य स छे. यन पतन वि भने परिक्ष५ मे ॥था द्वारा ४ छ। 'मूलंमि जोयणसयं' भूस लाभ सो यो- 'पण्णत्तरि जोयणाई मज्झंमि' सत्तावन या मध्य लाभ उवरितले शिमरना मासभा यन यत 'पण्णासं ज़ोयणा हुति' ५यास येनन। થાય છે. ૧ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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