________________ 980 ___जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे निनिमित्तकम् अनादि सिद्धत्वाद्देवलोकादिवत् प्रज्ञप्तम्, तत्र शाश्वतत्वमेव व्यक्त्या दर्शयति-'जण कयाइ ण आसि ण कयाइ ण भविस्सइयन्न कदाचित् नासीत्,न कदाचित् नास्ति न कदाचित् न भविष्यति 'भुवि च भवइ अ भविस्तइ अ' अभूच्च भवति च भविष्यति च 'धुवे णि अए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे भरहे वासे' ध्रुवं नित्यं शाश्वतम् अक्षयम् अव्ययम् अवस्थितम् स्थिरम् नित्यं भरतं वर्षमिति / एतेन भरत नाम्नश्चक्रिणो देवाच्च भरतवर्षनाम प्रवृतं भरतवर्षाच्च तयोर्नाम भरतं स्वकीयेन अस्यातीति निरुक्तक्शेन प्रावतेति अन्योऽन्याश्रय दोषो दुर्निवार इति वचनीयता निरस्ता // सू० 35 // इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक पञ्चदश भाषाकलित ललितकलापालापक प्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापकवादिमानमर्दक श्री-शाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त- 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्रीघासीलाल-प्रतिविरचितायां श्री जम्बूद्विपप्रज्ञप्तिसूत्रस्य प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां तृतीयो वक्षस्करः समाप्तः // 3 // सासए णामधिज्जे पण्णत्ते) हे गौतम ! भरतक्षेत्र का भरतक्षेत्र ऐसा नाम देवलोक इस नाम की तरह निर्निमित्तक है-शाश्वत है / क्योकि (जं ण कयाइ ण आसि ण कयाइ ण भविस्तइ)यह नाम पहिले भूतकाल में नहीं था ऐसी बात नहीं है, वर्तमान में ऐसा इसका नाम नहीं है यह बात भी नहीं है और आगे भी इसका ऐसा नाम नहीं रहेगा यह बात भी नहीं है / (भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ) क्योकि ऐसा इसका नाम रहा है, है, और आगे भी रहेगा (धुवे, णिअए, सासए अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे भरहे वासे) इसका कारण यही है कि यह भरत क्षेत्र ध्रुव है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्ययरूप है, अवस्थित है, और नित्य है / इस प्रकार के इस कथन से अन्योन्याश्रय दोष का परिहार हो जाता है / सू०३५॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालतिविरचित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र की प्रकाशिका व्याख्या में तोसरा वक्षस्कार समाप्त / / 3 // वयो। के नाम भुरण निमित्त छ. - शाश्वत छ. म ( जंण कयाइ ण आसिण कयाइण भविस्सइ) मे नाम पद सूतमा न तु नथी,वर्तमानमा मेनु નામ નથી, એવું પણ નથી અને ભવિષ્યમાં પણ એનું એવું જ નામ રહેવાનું નથી, એવું 5 नयी. (भुवि च भवइ अ भविस्सइ अ) उभः स मानु नाम 2 छे. छ भने भविष्यमा 55 23. (धुवे णिअए, सासए, अक्खए, अव्वए. अवट्टिए, णिच्चे भरहेवासे) એનું કારણ આ છેકે આ ભરતક્ષેત્ર પ્રવ છે, શાશ્વત છે, અક્ષય છે, અવ્યય રૂપ છે, અવસ્થિત છે અને નિત્ય છે. આ પ્રકારના આ કથનથી અ ન્યાશ્રય દોષને પરિહાર થઈ જાય છે. | સૂત્ર-૩માં શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલવતિ વિરચિત જમ્બુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્રની પ્રકાશિકા વ્યાખ્યાને ત્રીજો વક્ષસ્કાર સમાપ્ત છે 3. જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર