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________________ प्रकाशिका टीका तृ०३वक्षस्कारः सू० २२ सप्तरात्र्यानंतरीयवृत्तवर्णनम् ८०३ पुरुषकारः पौरुषं पराक्रमः विक्रमः, अद्भयादोनि आश्चर्यकारकाणि कुत इत्याह-'दिव्वा देवजुई' इत्यादि । दिव्या सर्वोत्कृष्टा देवस्येव द्युतिः यस्य स देवद्युतिः एवं दिव्यो देवानुभावो देवानुभागोवा लब्धः प्राप्तः अमिसमन्वागतो देवधर्मप्रसादादिति, परतः श्रुतेऽपि गुणातिशये आश्चर्योत्पत्तिः स्यात् दृष्टे तु सुतरामित्याशयेनाह-'त दिट्ठा ' इत्यादि 'तं दिवा णं देवाणुप्पियाणं इड्ढी एवं चेव जाव अभिसमण्णागए ' तद् दृष्टा खलु देवानुप्रियाणाम् ऋद्धिः सम्पत्, चक्षुः प्रत्यक्षेण अनुभूता श्रवणतो दर्शनस्यातिसंवादकत्वात् अद्भूताश्चयजनकत्वात् एवं चैवेति उक्तन्यायेन दृष्टा देवानुप्रियाणां द्युतिः, एवं यशो बलादिकमपि दृष्टमित्यादि वक्तव्यम्, यावदभिसमन्वागत इतिपदे यावत्पदसंग्रहस्तु 'इड्ढीजसे बले वीरिए' इत्यादिकम् अनन्तरोक्त एव बोध्यम् 'तं खामेमु णं देवाणुप्पिया !" तत् क्षमयामः खलु देवानुप्रियाः ! वयम् 'खमंतु णं देवाणुप्पिया !' भवदुबालचेष्टितं क्षमन्तां देवानुप्रियाः ! 'खंतुमरहंतु णं देवाणुपिया ।' क्षन्तु मर्हन्तु क्षमां कत्तु योग्या क्रम विक्रम ये सब ही बड़े आश्चर्यकारक है. क्योंकि आपकी सर्वोत्कृष्ट देव के जैसी युति है, सर्वोत्कृष्टदेव के जैसा आपका प्रभाव है. यह सब आपने देव एवं धर्म के प्रसाद से ही लब्धकिया है. प्राप्त किया है और अमिसमन्वागत किया है. दूसरों के मुख से गुणातिशय के सुनने पर आश्चर्य होता है परन्तु जब वह स्वयं आखों से देखलिया जाता है तो आश्चर्य की सीमा नहीं रहता है । (तं दिवाणं देवाणुप्पियाणं इड्ढो एवं चेव जाव अमिसमण्णागए, तं स्वामेमु णं देवाणुप्पिया खमंतु णं देवाणुप्पिया | खंतुमरहंतु णं देवाणुप्पिया!) हमलोगों ने आप देवानुप्रिय की ऋद्धि अपनो आखों से देखली है. इसी प्रकार से आप का यश बल और वीर्य भी देखलिया है. यहां यावत्पद से"इड्ढी जसे बले" इन्हीं पदों का संग्रह हुआ है. इसलिये हे देवानुप्रिय! हम अपने अपराधों को आप से क्षमा करवाते हैं क्योंकि हमें पश्चात्ताप हो रहा है. हमारे इस बालचेष्टित क्रियाको आप देवानुप्रिय क्षमा करें. आप देवानुप्रिय ! हमें क्षमा करने के योग्य है, क्योंकि आप बहुत बड़े सदा(यनी द्ध-सभ्यत. धुति, प्रसा-यश-ति, म, शारी(२४ शक्ति, वीय-मामशत, પુરૂષકાર-પૌરૂષ અને પરાક્રમ વિકમ એ સર્વે અતીવ આશ્ચર્ય કારક છે. કેમકે આપશ્રીની સર્વોત્કૃષ્ટ દેવના જેવી વૃતિ છે, સર્વોત્કૃષ્ટ દેવના જે આપશ્રીને પ્રભાવ છે. એ બધું આપ શ્રીએ દેવધર્મના પ્રસાદ થી જ મેળવ્યું છે. પ્રાપ્ત કર્યું છે અને અભિસમન્વાગત કર્યું છે. બીજાઓના મુખથી ગુણાતિશયની વાત સાંભળવાથી આશ્ચર્ય થાય છે પણ જ્યારે તે ગુણોના भागार २ मांगे। थान मे त्यारे असीम माश्चय याय छे. (ते दिहाण देवाणुप्पियाणं इद्री एवं चेव जाव अभिसमण्णागए, तं खामेमु णं देवाणुप्पिया! खमंतु णं देवाणुप्पिया! खतमरहंतु ण देवाणुप्पिया!) सभे सवे साये २०१५ देवानुप्रियनी १ यक्षએથી જોઈ લીધી છે. એ પ્રમાણે તમારા યશ બળ અને વીર્ય પણ અમે જોઈ લીધાં છે. । यावत यहथी "इइढी जसे बले" से यहानी संग्रह थये। छ. मेथी हे वानप्रिय! અમારા થયેલ અપરાધ બદલ અમે સર્વ આપ શ્રી પાસેથી ક્ષમા યાચીએ છીએ અમને ભારે પશ્ચાત્તાપ થઈ રહ્યો છે. અમારી બાળ-ચેષ્ટાઓને આપી દેવાનુપ્રિય ક્ષમા કરો આપ દેવાનુપ્રિય! જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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