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________________ प्रकाशिका टीका तृ० वक्षस्कारः सू० १८ भरतसैन्यस्थितिदर्शनम् पतति इत्येवं शीलं दण्डपाति अतर्कितमेव पतिपक्षस्कन्धावारे पतनशीलम् अनेनास्योत्पतनस्वभावोऽपि सूचितः, तथा 'अणसुपाति' अनपाति तत्र मार्गादि चलनजनितश्रमेषु नाश्रुपातयतीत्येवं शीलम् अनअपाति तथा 'अकालतालुं च ' अकालतालुअश्यामतालुकम् श्यामतालवर्जितं पूर्वं रक्ततालुत्वे वर्णितेऽपि यत्पुनकालताल इति विशेषणं तत्तालुनः श्यामत्वम् अतितरामपलक्षमिति तन्निषेधख्यापनार्थम् च समुच्चये तथा 'कालसिं' कालहेषि, तत्र काले अराजकानां राजनिर्णयार्थ के अधिवासनादिके समये पते - शब्दयतीत्येवं शीलं कालदेषि अशुभसमयसूचकं तथा 'जिअनिदं गवेसगं' जितनिद्रं गवेषकम् तत्र जितनिद्रा आलस्यं येन तत् जितनिद्रं त्यक्तालस्य मित्यर्थः आलस्य वजितम् कार्येषु अप्रमादित्वात् यथा श्रुतार्थे व्याख्यायमाने हयशास्त्रविरोधः ७५५ दंडपात अणसुपाति अकालताच कालहेसि जियनिदं गवेसगं ) यह अचन्ड पाती-था दण्डपाती था तात्पर्य यही है कि यह विनाविचारे ही प्रतिपक्ष को सेना में दण्ड की तरह आक्रमण करने के स्वभाव वाला था । यह अनुश्रुपाती था दुर्दान्त शत्रु सेना को भी देखकर यह कभी आँसु नहीं वहाता था अथवा मार्गादि चलन जन्य श्रम के वशवर्त्ती हुआ यह कभी घबडाहट से अपनी आँखों से आंसु नहीं निकालता था इसका तालु कृष्णता से वर्जित था समयानुसार ही यह हिनहिनाहट करता था असमय में नहीं अथवा काल में अराजक के राजनिर्णयार्थक अधिवासनादिक के समय में यह अशुभ का सूचक शब्द किया करता था (जियजिद्द गवेसगं ) यह निद्राविजित नहीं था किन्तु इसने ही निद्रा को आलस्य को अपने वश में कर लिया था । अर्थात् यह आलस्य रहित था - और गवेषक था । मूत्र पुरीष के उत्सर्ग के समय में यह उचित और अनुचित स्थान की खोज करने वाला था "जितनिद" का अर्थ इसने निद्रा जीत ली थी- अर्थात् इसे निद्रा नहीं आती थी ऐसा हो अर्थ मान लिया जावे तो फिर "सदैव निद्रावशगा, निद्राच्छेदस्य संभवः, जायते संगरे प्राप्ते कर्करस्य च भक्षणे" हतो. (अचंडपाडियं दंडपाति अणसुपाति अकाल तालु च कालहेसि जियनिहं गवेसरां) मे અચ’ડપાતી હતા—દંડપાતી હતા, એટલે કે એ વગર વિચાર કરે જ પ્રતિપક્ષીની સેના ઉપર ક્રૂડની જેમ આક્રમણ કરવાના સ્વભાવવાળા હતા એ અનન્નુપાતી હતા. દુર્દા ત શત્રુસેનાને જોઈ ને પણ એ કદાપિ રડતા ન હતા. અથવા માર્ગાદિચલન જન્ય શ્રમથી પીડિત થઈને એ કદાપિ વ્યાકુળ થઈને રડતા ન હતા. એના તાલુભાગ કૃષ્ણતાથી વિત હતા. એ સમયાનુસાર જ હણહણાટ કરતા હતા. એટલે કે અસમયમાં એ હણ હણાહટ નહિ કરતા હતા. અથવા કાલમાં અરાજકાના રાજનિયા ક અધિવાસનાદિકના સમયમાં એ અશુભ सून्य शह उरतो हतो. (जियनिहं गवेसरां) मे निद्राविभित नहोतो. यशु खेोगे निद्राने આલસ્યને પેાતાના વશમાં કરી લીધાં હતાં. એટલે કે આલસ્યાદિ રહિત હતા. એ ગવેષક હતા. મૂત્ર પુરીષના ઉત્સગ સમયે એ ઉચિત અને અનુચિત સ્થાનની શેાધ કરનાર હતા, 'जितनिद्र' नो अर्थ खेोगे निद्रा कती सीधी इती भेटी આને નિદ્રા નહિ આવતી હતી, એવા જ અર્થ માની લેવામાં આવે તે— જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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