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________________ ६९८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'सरसेणं गोसीसचंदणेण पंचगुलितले चच्चए दल३' सरसेन रससहितेन गोशीर्षचन्दनेन गोरोचनमिश्रितचन्दन विशेषेण चर्चितम् अनुलिप्तम् पञ्चांगुलितलं ददाति 'दosar अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिय मल्लेहिय अच्चिणेड़' अग्रैः - अपरिभुक्तैः अभिनवैरित्यर्थः रैः श्रेष्ठैः गन्धैश्च माल्यैश्व अर्चयति स सुषेणः सेनापतिः कपाटौ पूजयति 'अच्विणित्ता' अfficer 'goफारुणं जाव वत्थारुणं करेइ' पुष्पारोपणम् यावत् वस्त्रारोपणम् यावत् पदात् माल्यारोपणं वर्णारोपणं चूर्णारोपणम् आभरणारोपणं करोति 'करिता' कृत्वा 'आसतो सतविपुलवट्ट जाव करेइ' आसकोत्सक्तविपुलवर्त्तयावत्करोति तत्र आसक्तः आ अवाङ्मुखः अधोमुखो भूत्वा सक्तः भूमौ संलग्नः उत्सक्तः उ- उपरि संबद्धः यः विपुलः विशाल: वर्त्तः गोलाकारः यावत् चाक्यचिक्ययुक्तः मुक्तादामविलम्बिबिम्ब: वितानः चंदनवा इति भाषाप्रसिद्धः सः सौन्दर्यादि गुणग्रामगरिष्ठो यथा स्यात् तथा करोति-संयोजयति । 'करिता ' कृत्वा 'अच्छेहिं' अच्छेः बिमलैः 'सहेहिं' श्लक्ष्णे अतिप्रतलै चिक्कदिये (अम्भुक्त्ता सरसेणं गोसीसचदणेणं पंचगुलितले चञ्चए दलह) दिव्य उदक धारा के छीटे देकर फिर उसने सरस गोशीर्ष चन्दन से - गोरोचनमिश्रित चन्दन से - अनुलिप्त पत्र वाङ्गलितल दिया अर्थात् गोशीर्ष चन्दन के वहां पर हाथ लगाये - ( अग्गेहिं वरेहि गंधेहिय मल्लेहिय अच्चिइ) इसके बाद फिर उस सुषेण सेनापतिने उन कपाटों की अभिनव श्रेष्ट गन्धों से और मालाओं से पूजा की. (अच्चिणित्ता पुप्फारुहणं जाव वत्थारुहणं करेइ) पूजा करके फिर उसने उनके ऊपर पुष्पों का आरोहण यावत् वस्त्रों का आरोहण किया। यहां यावत्पद से "माल्यारोपण वर्णीरोपणं चूर्णारोपणं आभरणारोपणं करोति" इस पाठ का संग्रह हुआ है (करिता आसतोसत्तविपुल वट्ट जाव करेइ) इन सब वस्तुओं का वहां पर आरोपण करके फिर उसने उनके ऊपर एक चन्दरवा ताना जो आकार में गोल था । तथा विस्तृत था । नीचे की ओर उसका मुख यावत् वह चाक्यचिक्य से युक्त था। मुक्ता दाम से वह विशिष्ट था । तथा जिस प्रकार से उसके सौन्दर्य की अभिवृद्धि हो इस ढंग से वह सजाया गया था । ( करिता अच्छेहिं सहेहि हिव्य हिउधाराना तेमनी उपर छांटा नाच्या (अब्भुक्खेत्ता सरसेण गोसीसचंद पंगुलितले बच्चए दलइ) व धाराना छोटा हाने पछी तेथे सरस गोशीर्ष यन्हन थी गोशियर મિશ્રિત ચન્દનથી અનુલિપ્ત પંચાંગુલિતલ એટલે કે ગેાશીષ ચંદનના ત્યાં હાથના થાપાએ साव्या. ( अग्गेहि वरेहिं गंधेहिय मल्लेहिय अच्चिइ) त्यार माह ते सुषेण सेनापतियखे उपादोनी मलिनव श्रेष्ठ गन्धोथी भने भाजायोथी पूल री 'अच्चिणित्ता पुप्फारुहणं जाव वत्थाहणंकरैद्र) पूल उरीने तेथे तेमनी उपर पुष्पानु आरोहण यावत् वस्त्रो आरोप यु यहीं या यावत्पथी (माल्यारोपणं वर्णारोपणं चुर्णारोपणं आभरणारोपणं करोति) या पाठ नो संग्रह थयो छे. ( करिता आसत्तौ सत्त विपुल वट्ट जाव करेइ ) मे सर्व वस्तुमानु તેમની ઉપર અરાપણું કરીને પછી તેણે તેમની ઉપર એક વિસ્તૃત, તેમજ ગાળ ચદરવા બાંધ્યું। તે ચંદરવાની નીચેને ભાગ ચાકચકચથી (ચમકદાર) યુકત હતા. તેમજ જે રીતે તે ચંદરવાના સૌન્દર્ય માં અભિવૃદ્ધિ થાય તે રીતે તેને સુસજ્જિત કરવામાં આવ્યે હતેા. જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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