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________________ प्रकाशिका टीका तृ० ३ वक्षस्कारः सू० १४ तमिस्रागुद्दाद्वारोद्घाटन निरूपणम् ६९७ कलशहस्तगताः यावत् अनुगच्छंति, यावत् पदात् पूर्वोक्तं सर्व ग्राह्यम् 'तरणं से सुसेणे सेवई सच्चि सव्वजुड़ जाव णिघोसणाइएणं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छइए' ततः तमिस्रागुहाभिमुखगमनान्तरं खलु स सुषेण: सेनापतिः सर्वद्धर्या सर्वया ऋद्धया आभरणादि रूपया लक्ष्म्या तथा सर्वद्युत्या सर्वकान्त्या युक्तः सन् यावन्निर्घोषनादितेन पूर्वोक्तसमस्तवाद्यसहित निर्घोष नामक वाद्य विशेषशब्देन यत्रैव तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य - दक्षिण भागवर्तिनो द्वारस्य कपाटौ तत्रैवोपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य - कपाटसमीपमागत्य 'आलोए पणासं करे' आलो दर्शनमात्रे एव कपाटयोः प्रणामं करोति 'करिता' कृत्वा 'लोमहत्थगं परामुसइ' लोमहस्तकं प्रमार्जनिकां परामृशति हस्तेन स्पृशति गृह्णातीत्यर्थः 'परामुसित्ता' परामृश्य गृहीत्वा 'तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे लोमहत्थेणं पमज्जइ' तमिस्त्रा गुहायाः दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ लोमहस्तकेन प्रमार्जनिकया प्रमार्जयति 'पमज्जित्ता' प्रमाये 'दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खे' दिव्यया उदकधारया अभ्युक्षति सिंचति स्नपयतीत्यर्थः, 'अब्भुक्खित्ता' अभ्युक्ष्य सिक्त्वा ये विनीत आज्ञा कारिणी थी. इनमें कितनीक दासियों के हाथ में चन्दन के कलश थे. यहां यावत्पद से पूर्वोक सब विषय गृहीत हुआ है. (तएण से सुसेणे सेणावई सव्विद्धीए सव्वजुईए जावणिग्घोसणाईएणं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुबारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छइ ) इस प्रकार वह सुषेण सेनापति अपनी समस्त ऋद्धि से और समस्त युति से युक्त हुआ यावत् बांजों के गडगडाहट के साथ साथ जहां पर तिमिस्रा गुहा के दक्षिण द्वार के किवाड़ थे वहां पर आ पहुचा. ( उवागच्छित्ता आलोए पणामं करेइ, करिता लोम हथगं परामुसइ) वहां आकर उसने उन कपाटों को दिखते ही प्रणाम किया प्रणाम करके फिर उसने लोमहस्तक प्रमार्जनिका - को उठाया (परामुसित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे लोम हत्थेणं पमज्जइ ) उसे उठाकरके उसने तिमिस्र गुफा के दक्षिण दिग्वर्तीद्वा रके कपाटों को साफ किया - ( पमजित्ता ) साफ करके (दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ ) फिर उन पर उसने दिव्य - उदक की धारा छोडी अर्थात् दिव्य उदक धारा के उन पर छीटे उत सर्व विषय संगृहीत थये। छे. (त एणं से सुसेणे सेणावइ सब्विद्धीप सव्वजुइए जाव जिग्घेासणाइए णं जेणेव तिमिस गुहाप दाहिणिल्लस्स डुवारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छइ ) આ પ્રમાણે તે સુષેણ સેનાપતિ પોતાની સમસ્ત ઋધિઅને સમસ્તઘતિથી યુકત થયેલ યાવત્ વાદ્યોના ધ્વનિ સાથે જ્યાં તિમિસ્ત્રા ગુહાના દક્ષિણ દ્વારના કમાડ હતાત્યાં આવી પહોંચ્યા. 'वागच्छत्ता आलो पणामं करेइ करिता लोमहत्थगं परामुसइ) त्यां भावीने तेथे ते उभा ડાને જોઈ ને પ્રણામ કર્યાં પ્રણામ કરીને પછી તેણે લેામ હસ્તક પ્રમાજ નિકા હાથમાં લીધી. 'परामुसित्ता तिमिसगुहार दाहीणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे लामहत्थेणं पमज्जइ) हाथभां सने तेथे तिमिस्र गुहाना दृक्षिण हिग्वती द्वारना उपासने साई (पमज्जित्ता) साई ने 'दिव्वाप उद्गधाराप अम्भुक्खेड) पछी तेथे तेभनी उपर द्विव्य ७४४ धारा छोडी भेटले ૮૯ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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