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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अर्थशस्त्रकुशलो वा अर्थशास्त्र नीतिशास्त्रादि तत्र कुशलः निपुणः रत्नं रत्नस्वरूपः सेनापतिः - सर्व सेनाप्रधानः सुषेणः - तन्नामको भरतेन राज्ञा चक्रवर्त्तिना एवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः यावत् पदात् नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत्र्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा तत्र करतलाभ्यां परिगृहीतो यस्तं तथा दशकरद्वयसम्बन्धिनो नखाः समुदिताः तत्र स तथा तं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवम् उक्तवान् एवं स्वामिन् ! यथा श्रीमान् आदिशति तथेति तथास्तु इति कृत्वा आज्ञायाः स्वामिशासनस्य विनयेन विनयपूर्वकं वचनं प्रतिगृणोति स्वीकरोति 'पडिणित्ता' प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य 'भरहरूस रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ' भरतस्य राज्ञः अन्तिकात् समोपात् प्रतिनिष्क्रामति निर्गच्छते पडिणिक्खमित्ता) प्रतिनिष्क्रम्य 'जेणेव सए आवासे तेव उवागच्छति' यत्रैव स्वस्य आवासः निवासस्थानं तत्रैव उपागच्छति आगच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य स सुषेण:- 'कोडुंबिय पुरि से सदावेइ' कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति आह्वयति 'सावित्ता' शब्दयित्वा आहूय ' एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् स्वगादिरूप शस्त्र के द्वारा प्रहार करने में कुशल है अथवा अर्थ शास्त्र में निपुण है इसी कारण उसे सेनापतिरत्न कहा गया है ऐसे उस सेनापतिरत्न सुषेण से भरतचक्री ने जब पूर्वोक्त रूप से कहा तो वह अपने स्वामी की बात को सुनकर बहुत ही अधिक हर्षित एवं संतुष्ट चित्त हुआ "यहां प्रयुक्त हुए- यावत्पद से “नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः || इन पदों का ग्रहण हुआ है उसने दोनों हाथों को दशों नख जिसमें मिलजाबें एसे अंजुलि के रूप में करके - और उसे मस्तक पर से घुमा करके उस प्रकार से कहा- हे स्वामिन् ! आपकी आज्ञा हमें प्रमाण है इस प्रकार कहकर उसने स्वामी के आज्ञा के वचनों को विनय के साथ स्वीकार कर लिया (पडिसु णित्ता भरहस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ) स्वीकार करके फिर वह भरत राजा के पास से चला आया - (पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए आवासे तेणेव उवागच्छइ) वहां से आकर वह जहां अपना घर था वहां आया - ( उवागच्छित्ता कोटुंबिय पुरिसे सदावेइ) वहां आकर के उस सुषेण ने अपने को कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया (सदावित्ता एवं क्यासी) बुला कर फिर उनसे उसने રૂપ શસ્ત્ર તેમજખડગાદિ રૂપ શસ્ત્ર વડેપ્રહાર કરવામાં જે કુશળ છે અથવા અર્થશાસ્ત્રમાં નિપુણ્ છે, એથી જ તેને સેનાપતિરત્ન કહેવામાં આવેલ છે. એવા તે સેનાપતિરત્ન સુષેણને તે ભરતચક્રીએ જ્યારે પૂર્વક્તિ રૂપમાં કહ્યુ ત્યારે તે પેાતાના સ્વામીની વાતને સાંભળીને ખૂબજ હષિત તેમજ संतुष्ट चित्त थय। हीं प्रयुक्त थयेस यावत् पथी (नन्दितः प्रीतिमनाः परम सौमनस्थितः) એપદેશનુ' ગ્રહણ થયું' છે. તે સેનાપતિએ બને હાથેાના દશ નખે જેમાં સંયુક્ત થઈ જાય તેમ અલિના રૂપમાં ખતાવીને અને તેને મસ્તકે ફેરવીને આ પ્રમાણે કહ્યુ “હે સ્વામીન્ ! આપશ્રીની આજ્ઞા મારા માટે પ્રમાણ રૂપ છે આમ કહીને તેણે સ્વામીની આજ્ઞાના વચને सविनय स्वीारी सीधा (पडिसुणित्ता भरहस्ल रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ) स्वीर उरीने पछी ते भरत राम पासेथी तो रह्यो ( पडिणिक्खमित्ता जेणेव सर आवासे तेणेव उवागच्छइ) त्यांथी न्यावीने ते ज्या पोता घर हतुं त्यां मन्ये (उवागच्छित्ता कोडुंबिय ६७० જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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