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________________ प्रकाशिका टीका तृ. वक्षस्कारः सू०७ मागधातीर्थाधिपतेः भरतं प्रत्युपस्थानीयार्पणम् ६०५ राजा रथं परावर्तयति निवर्तयति 'परावत्तित्ता' परावर्त्य 'मागहतित्थेणं लवणसमुद्दामो पच्चुत्तरइ' मागधतीर्थेन लवणसमुद्रात् प्रत्यवतरति 'पच्चुत्तरित्ता' प्रत्यवतीर्य 'जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव विजयस्कन्धावारनिवेशो यत्रैव च बाह्या उपस्थानशाला तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'तुरए णिगिण्हइ' तुरगान् निगृहाति-स्थिरी करोति 'निगिहित्ता' निगृह्य 'रहं ठवेइ' रथं स्थापयति 'ठवित्ता' स्थापयित्वा 'रहाओ पच्चोरुहइ' रथात् प्रत्यवरोहति अवतरति 'पच्चोरुहिता' प्रत्यवरुह्य 'जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'मज्जणघरं अणुपविसई' मज्जनगृहम् अनुप्रविशति 'अनुपविसित्ता' अनुप्रविश्य 'जाव ससिव्व पियदसणे' यावत् शशीव प्रियदर्शनः 'गरवई मज्जणघराओ पडिणिक्यमइ' नरपतिः मज्जनगृहात् प्रतिनिष्कामति अत्र पूर्व कर दिया । (तएणं से भरहे राया रहं परावत्तेइ) इसके बाद उस भरत राजा ने अपने रथ को लौटाया ( परावत्तित्ता मागहतित्थेणं लवणसमुद्दाओ पच्युत्तरइ ) और लौटाकर मागधतीर्थ से होता हुआ वह लवण समुद्र से वापिस भरत क्षेत्र की ओर आ गया (पच्चुत्तरित्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ ) और आकर के वह जहां पर विजयस्कन्धावार का निवेश था-पडाव पड़ा हुआ था और उसमें भी जहां पर बाह्य उपस्थान शाला थी वहां पर आया । (उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हइ) वहां आकरके उसने घोड़ों को रोक दिया (निगिहित्ता रहं ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता जेणेव मज्जणधरे तेणेव उवागष्छइ) घोड़ो को रोक करके उसने फिर रथ खड़ा कर दिया । रथ के खड़े होते ही वह उस रथ से निचे उतरा और उतरकर फिर वह जहां पर स्नानगृह था वहां पर आया (उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ) वहां आकर वह स्नानगृह में प्रविष्ट हुआ (अणुपविसित्ता जाव ससिव्व पियदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमई) वहां प्रविष्ट होकर उसने पूर्ववत् स्नान किया स्नान करने के अनन्तर फिर धवल महामेध से निकलते हुए चन्द्र के भरत जन्मे पातान। २यने पाछ। पाल्या. (परावत्तित्ता मागहतित्थेणं लवणसमुदाओ पच्चुत्तरइ) मने पाछ। वाणीने माग ती माथी ५सार नेते सण समुद्र त२५थी पाछ। लरत क्षेत्र त२५ मापी गये। (पच्चुत्तरित्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेय बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ) भने भावीन ते ल्या विय २४ धावा२નિવેશ હતે-પડાવ હતો, અને તેમાં પણ જ્યાં બાહ્ય ઉપસ્થાન શાળા હતી ત્યાં આ બે (उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हइ) त्यो मापीन ते घामाने भाराभ्या. (निगिण्हित्ता रहं ठवेइ ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ पचोरुहिताजेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ) घामाने ઉભા રાખીને પછી તેણે રથ ઉભા રાખ્યો. રથ ઊભો રહેતાં જ તે રાજા રથ ઉપરથી નીચે ઉતર્યો सन नाय तरी २ पछी ori स्नान हेतु-त्यां . (उवाच्छिता मज्जणघरं अणुपविसइ) त्या भावीन त स्नानभा प्रविष्ट था. (अणुपविसिता जाव ससिव्व पियदसणे णरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमई) यो प्रविष्ट छन तो पू यत् स्नान , स्नान જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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